संस्कृत नाट्य साहित्य में कालीदास का स्थान** कालीदास न केवल एक काव्यकार रूप में अपना वैशिष्टय रखते है अपितु गीतकाव्यकार एवं नाटककार के रूप में भी उनका वही स्थान है।पुरातन कवियों की गणना प्रसंग में काली दास को कनिष्ठिका अधिष्ठित करने का श्रेय उनकी काव्यत्रयी को ही नहीं, अपितु उनकी नाटक त्रयी को भी जाता है
।अभिज्ञान शाकुंतलम का सर्वप्रथम अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले विलियम जॉन्स ने" दी लास्ट थिंग" की भूमिका में कालिदास को भारत का शेक्सपियर घोषित किया है तथा उनकी शकुंतला की भूरि भूरि प्रशंसा की
नाटककार के रूप में मूल्यांकन करने के लिए कालीदास विरचित नाटकों को आधार मान सकते है
मालविकाग्निमित्रम् विक्रमोर्वशीयम् अभिज्ञानशाकुन्तलम् मालविकाग्निमित्रम्*-यह कालीदास विरचित प्रथम नाट्यकृति है।इसमें शुंग वंशीय नृप अग्निमित्र तथा रानी की परिचारिका मालविका का प्रेम वर्णित किया गया है ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में स्वच्छंद प्रेम का विकास प्रदर्शित किया गया है।यह पांच अंक का नाटक है प्रथम कृति होने से इस नाटक में कालिदास का काव्य कौशल प्रौढतम रूप में उपलब्ध नही होता है।फिर भी नाटक में राजा के अंत: पुर में बढते काम, रानियो कीपरस्पर ईर्ष्या,राजा की कामुकता, राजमहिषी धारिणी की धीरता का बडा ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है। विक्रमोर्वशीयम्*-यह पांच अंकों का एक त्रोटक है जिसमें राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है इसकी कथा 10/95 तथा शतपथ ब्राह्मण से ली गई है महाकवि कालिदास ने नाटक को मानवीय प्रेम की अत्यंत मधुर एवं सुकुमार कहानी में परिणत कर दिया है महाकविने अपनी कोमलकांत पदावली से तथा शैली की मौलिकता से इसे नवीन रूप में प्रस्तुत किया है।भरत मुनि का श्राप, कार्तिकेय के द्वारा दिया गया नियम, उर्वशी का लता रूप में परिवर्तन,पुरुरवा का उन्माद रूप में प्रलाप आदि प्रसंग कवि की नव नवोन्मेष शालिनी नाट्य प्रतिभा का ही प्रतिफल है।प्राकृतिक दृश्य बड़े रमणीय है भाषा प्रसादयुक्त एवं स्वाभाविक अलंकारोसे अलंकृत है।इस नाटक में महाकवि ने श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का सुन्दर चित्रण किया है जो पाठकों को जोड़े रखता है। डॉक्टर रमाशंकर तिवारी के अनुसार कालीदास ने प्रस्तुत नाटक में एक तप्त लोहे को दूसरे तप्त लोहे से जोड़ दिया है।यदि इस नाटक की तुलना अभिज्ञान शाकुंतलम से की जाए तो यह उसके नाटकीय विधान की दृष्टि से कमजोर है इसकी स्वाभाविकता भी थोड़ी कम नजर आती है अभिज्ञानशाकुन्तलम्*-यह कालिदास विरचित अंतिम नाटक है जिसका कथानक महाभारत के आदिपर्व के शकुन्तलोपाख्यान से लिया गया है वहाँ यह कथा रसहीन है किन्तु कालिदास ने अपनी अद्भुत कल्पना, नाटकीय विधान से इसे न केवल संस्कृत साहित्य अपितु विश्व साहित्य का सतत देदीप्यमान सूर्य बना दिया है महाकवि ने अपनी वर्णन शक्ति से उसमे पर्याप्त परिवर्तन कर उनमे आवश्यकतानुसार नवीन प्रसंगो की उद्भावना की है। कालीदास ने प्रथम अंक में शकुन्तला के सौन्दर्य के लिए नवीन उपमाए की है
इदंकिलाव्याज मनोहर वपु: स्तप:क्षमं साधयितुं य इच्छति
ध्रुव:स:नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छेत्तुमृर्षिव्यवस्यति ।।
प्रस्तुत पद्य में दुष्यन्त शकुन्तला के कोमल शरीर की तुलना नीलकमल के पत्ते से करता है चतुर्थ अंक में कण्व द्वारा शकुन्तला को दिये गये शिक्षाप्रद उपदेश वर्तमान में भी प्रासंगिक है कण्व शकुन्तला से कहते है-------------
शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्ति सपत्नीजने भर्तुविप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:
इसी अंक में शकुन्तला की विदाई के अवसर कण्व की मर्मानुभूति को व्यक्त किया गया है शकुन्तला की विदाई के संदर्भ में कण्व ह्रदय के उद्गारो को व्यक्त करते हुए कहते है आज शकुंतला पति गृह जाएगी। ऐसा विचार कर हृदय दुख से भर रहा है, गला अश्रु प्रवाह को रोकने के कारण रुंध गया है । चतुर्थ अंक के चार श्लोक संस्कृत साहित्य में अपनी पहचान रखते हैं
पंचम अंक में महाकवि ने परिवर्तन किया है मूल कथा में राजा विवाह की संपूर्ण बातें स्मरण होते हुए भी शकुंतला को स्वीकार नहीं करता है जब आकाशवाणी शकुंतला का समर्थन करती है तब वह उसे स्वीकार करता है। जबकि कालीदास के अभिज्ञान शाकुंतलम में राजा दुर्वासा के शाप के प्रभाव के कारण शकुंतला को नहीं पहचानता है । षष्ठ और सप्तम अंक दोनों कालिदास की मौलिक रचना है मूल कथा में इनसे संबंधित कोई अंश नहीं है। सचमुच में आधुनिक काल में संस्कृत के पुनर्जीवन का तथा पाश्चात्य देशों में संस्कृत साहित्य के गंभीर अध्ययन के सूत्रपात का श्रेय कालीदास और उनकी अमर कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम् को है। सर विलियम जोन्स द्वारा अंग्रेजी में अनुदित "अभिज्ञान शाकुंतलम "जब यूरोप में पहुँचा तो उसे देखकर यूरोप का शिक्षित समाज आश्चर्य चकित रह गया शीघ्र ही यूरोप की सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया सन्1791 में जार्ज फोस्टर द्वारा जर्मन भाषा में किए गए शकुंतला के अनुवाद को देखकर जर्मन कवि गेटे इतना गदगद हुआ कि उसने इसकी प्रशंसा में एक कविता रच डाली
वासन्तं कुसुमं फलं च युगपद ग्रीष्मस्य सर्व च यद्---------शाकुन्तलम् सेव्यताम्
यदि तुम वसन्त के फूल तथा शीत के फल चाहते हो और आत्मा को मोहित करने वाला ,प्रसन्न करने वाला एवं उसी तरह से पुष्ट करने वाला रसायन तथा पृथिवी एवं स्वर्ग का सम्मिलन ये सभी बातें एक जगह देखना चाहते हो तो शाकुंतला का अध्ययन करें और वहां ये सभी तत्व तुम्हें मिल जाएंगे । सभी समालोचको ने इस नाटक को सर्वश्रेष्ठ मानकर एक स्वर से प्रमाणित किया है -
काव्येषु नाटकं रम्य तत्र रम्या शकुन्तला "
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