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शनिवार, 8 जून 2019
दशरूपकम् के अनुसार नाटक की पाँच अवस्थाएँ# net/jrf/M.A. syllbus के अनुसार
दशरूपकम् के अनुसार नाटक की पाँच अवस्थाएँ-- दशरूपकम् के प्रथम प्रकाश में धनंजय ने नाटक की पाँच अर्थप्रकृति और पाँच अवस्थाएँ बताई है जो किसी भी काव्य में कथावस्तु के सम्यक प्रकार के संयोजन के लिए अनिवार्य है पिछली पोस्ट में हमने पाँच अर्थप्रकृतियो के बारे में जाना।इस पोस्ट में हम नाट्यशास्त्रीय पाँच अवस्थाओं के बारे में जानेंगे।इन पंच अर्थप्रकृति और पंच अवस्थाओ के संयोजन से नाट्यशास्त्र की पंच सन्धियों का निर्माण होता है। जो कथावस्तु के विभाजन को सरल और सम्यक बनाती है।
नाट्यशास्त्र की पंच अवस्थाएँ ---- अवस्था पञ्चकार्यस्य प्रारब्घस्य फलार्थिभि: ।
आरंभ यत्नप्राप्त्याशानियताप्ति फलागमा:।।उपरोक्त श्लोकानुसार फल या प्रयोजन सिद्धि के लिए प्रारंभ किए गए कार्य कीआरम्भ,यत्न,प्राप्त्याशा,नियताप्ति,फलागम ये पाँच अवस्थाएँ होती है।
आइये हम इनके बारें मे जान लेते है--- आरम्भ --"औत्सुक्यमात्रमारम्भ:फल लाभाय भूयसे" ।
अभीष्ट फल प्राप्ति के लिए उत्सुकता की उत्पत्ति होना ही आरंभ कहा गया है। उदाहरण के रूप में रत्नावली नाटिका के प्रारम्भ में उदयन का मंत्री यौगन्धरायण कहते है कि मैं अपने प्रयत्नो और दैव के सहयोग से अपने स्वामी के लिए किए
जाने रहे कार्य में अवश्य सफलता प्राप्त करूँगा उनका इस प्रकार का दृढ.निश्चय करना ही आरम्भ है।
प्रयत्न--
"प्रयत्नस्तु तद्प्राप्तौव्यापारोअतित्वरान्वित"
फलप्राप्ति के लिए निरन्तर अनेक साधनो और उपायो के द्वारा कार्य में लगे रहना ही प्रयत्न कहलाता है। जैसे रत्नावली नाटिका में सागरिका उदयन से मिलना चाहती है लेकिन मिलन का उपाय नही निकलने पर वह उदयन का चित्र बनाने लगती है ।इस प्रकार का प्रयास ही प्रयत्न कहलाता है।
उपाय के होने पर भी बिघ्न की आशंकाओं से जब फल प्राप्ति में निश्चित्ता नही होती है तो वह अवस्था "प्राप्त्याशा" कहलाती है।जैसे रत्नावली नाटिका में उदयन द्वारा वेश परिवर्तन कर रत्नावली से मिलन के उपाय सोचने पर भी विदूषक कहता है कि कही वासवदत्ता द्वारा इस कार्य में बाधा उपस्थित नही कर दी जाएँ। इस प्रकार कार्य की सिद्धि में विघ्नोकी आशंका होना ही "प्राप्त्याशा" नामक अवस्था कहलाती है। नियताप्ति--"अपायाभावत:प्राप्तिर्नियताप्ति:सुनिश्चिता "
विघ्नो के समाप्त होने पर जब फल प्राप्ति के सम्बन्ध में कोई आशंका नही रहे अर्थात् प्राप्ति निश्चित हो जाए, वह अवस्था नियताप्ति कहलाती है।उदाहरण के रूप में जब रत्नावली नाटिका में वासवदत्ता रत्नावली को बंदी बना लेती तब विदूषक राजा उदयन से कहता है कि वासवदत्ता की प्रसन्नता ही रत्नावली की प्राप्ति का उपाय है अर्थात् रत्नावली से विवाह करना चाहते है तो आपको अपनी पत्नी वासवदत्ता को प्रसन्न करना चाहिए उसकी अनुमति से ही आपका यह कार्य सिद्ध हो सकता है क्योंकि रानी वासवदत्ता के प्रसन्न होने पर आपके और रत्नावली के मिलन की सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी ।
फलागम--"समग्रफलसम्पत्ति:फलयोगो यथोदित:"समग्र फल की प्राप्ति होना ही 'फलागम' नामक अवस्था कहलाती है।प्रत्येक नाटक में धर्म अर्थ काम इन तीनों में से जो भी प्रयोजन नाटक का हो उसकी संपूर्ण रूप में प्राप्ति ही फलागम है। जैसे रत्नावली नाटक के अंत में राजा उदयन को रत्नावली की प्राप्ति और चक्रवर्तित्व की प्राप्ति होती है यही नाटक की फलागम अवस्था है।
उम्मीद है आप सभी के लिए यह पोस्ट ज्ञानवर्धक होगी संस्कृत साहित्य और व्याकरण से जुड़ी जानकारी के लिए आप सभी हमारे Blog पर Visit करे हमारे द्वारा लिखी गई पोस्टे आप की Exam preparation में सहायक होंगी ।
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