गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020

Rpsc#reet exam#sanskrit teaching methods#संस्कृत भाषा क शिक्षण विधियाँ part1

Rpsc#reet exam#sanskrit teaching methods#संस्कृत भाषा शिक्षण की विधियाँ 

भूमिका -संस्कृत भाषा शिक्षण की कितनी विधियाँ है?कौनसी विधि किस पर अधिक बल देती है?उनके गुण दोष कौनसे है? इन सभी से संबंधित संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर संस्कृत भाषा शिक्षण मे पूछे जाते है,इसलिए परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण तो है ही ,इनका ज्ञान होने से संस्कृत भाषा शिक्षण को सहज और रुचिकर बनाया जा सकता है। 

संस्कत शिक्षण की विधियाँ-तीन भागो में बाँटा ज सकता है।

1प्राचीन विधियाँ
2 नवीन विधियाँ
3.नवीनतम विधियाँ

1प्राचीन विधि ○ वैदिक काल में प्रयोग लाई जाने वाली तथा पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से पूर्व संस्कृत शिक्षा के लिए प्रयुक्त की जाने वाली विधियों को प्राचीन विधि के अंतर्गत रखा जाता है।  जिसका अध्ययन हम संक्षेप में कर रहे हैं ।


पाठशाला विधि जैसा कि नाम से विदित है यह पद्धति पाठशाला ,गुरुकुल ,आश्रमो,मठो तथा विद्यापीठो में संस्कृत शिक्षा के अध्ययन हेतु प्रयोग में ली जाती रही ।इसे पंडित प्रणाली या परंपरागत प्रणाली या विधि के नाम से जानते हैं । ○1835 तक यूरोपीय विद्वानों में इसी विधि से संस्कृत अध्ययन आरंभ किया लेकिन लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के आने के पश्चात यह संस्कृत की प्राचीन पद्धति उपेक्षित हो गई ।इस पद्धति में शिक्षा का आरंभ उपनयन संस्कार के साथ होता था ।गुरु छात्रों को गायत्री मंत्र का उपदेश देता था इस मंत्र की दीक्षा के बाद ही उसकी शिक्षा आरंभ होती थी वह प्रतिदिन गुरू के सामने ब्रह्माञ्जलि बांधकर विद्या अध्ययन करता था अध्ययन के आरंभ में तथा अंत में वह गुरु को साष्टांग प्रणाम कर अपने दाहिने हाथ से उनके दाएं पैर के अंगूठे तथा अपने बाएं हाथ से गुरू के बाएं पैर के अंगूठे को स्पर्श करता था ओंकार के उच्चारण के पश्चात प्रतिदिन विद्या अध्ययन प्रारंभ करता क्योंकि यह मान्यता प्रचलित थी कि यदि वेद आरंभ
 और उसके अंत में ओंकार शब्द का उच्चारण नहीं किया जाता है तो उसकी विद्या धीरे-धीरे नष्ट होने लगती है ।
पाठशाला विधि में निम्नलिखित विधियों को समाहित किया गया है।
मौखिक एवं व्यक्तिगत शिक्षण विधि इस विधि में मौखिक रूप से कंठस्थीकरण पर ध्यान दिया जाता था गुरु वेद मंत्रों का उच्चारण करता था उसके पश्चात सभी शिष्य उनका अनुकरण करते थे उच्चारण संबंधी दोष होने पर गुरु उन्हें व्यक्तिगत रूप से छात्र को बताते थे । प्रतिदिन नवीन पाठ करने से पूर्व गत पाठ का मूल्यांकन किया जाता था। 
  लाभ- 1इस विधि से उच्चारण शुद्धध होता था
2 भाषा पर अधिकार होता था।
 
  पारायण विधि   बिना अर्थ समझे हुए वैदिक मंत्रों के सस्वर उच्चारण को पारायण कहते थे ○पारायण करने वाले छात्रों को पारायणिक कहा जाता था ।अच्छी स्मृति वाले छात्र जो बिना प्रयत्न के वैदिक पाठो को कंठस्थ कर लेते थे अकृच्छ कहलाते थे ।उच्चारण में अशुद्धि करने के आधार पर छात्रों को नाम दिया जाता था एक अशुद्धि करने वाले छात्रों को ऐकान्यिक, दो अशुद्धियाँ करने वाले छात्रो को द्वययनिक, तीन अशुद्धियाँ करने वाले को त्रयनयिक कहलाते थे। 
 पाठ के अनुसार पारायण संख्या निर्धारित होती है।
 पञ्चक अध्ययनम्= पाठ को 5 बार पढ़ना।
 पञ्चरूपम्=पाँच प्रकार से पढ़ना ।
पञ्च वारम् =शब्दोको पाँच बार कहना।
  पारायण विधि का लाभ= लाभ इस विधि में ज्ञान को स्मृति में संचित करने पर बल दिया जाता है प्राचीन काल में जहां वैदिक संस्कृति की महत्ता अधिक थी वहाँ यज्ञादि में वेद मंत्रो के कंठस्थीकरण में यह विधि सहायक थी। 
  
वाद विवाद विधि किसी विषय पर भाषण देना, उसकी व्याख्या करना उससे संबंधित सकारात्मक और नकारात्मक पहलू पर ध्यान आकर्षित करना वाद विवाद विधि के अंतर्गत आता है। शास्त्रार्थ एवं संवादइसी वाद विवाद का उदाहरण है दार्शनिक ग्रंथों  जैसेे न्याय शास्त्र सांख्य शास्त्र आदि के अध्ययन में इस विधि का का प्रयोग देखने को मिलता है  गार्गी संवाद भी उसी का उदाहरण है  इसके माध्यम से छात्रो मे अपनी बात को किस प्रकार सामने रखना है यह सिखाया जाता था
प्रश्नोत्तरविधि प्राचीन काल मे शिक्षक  इस विधि का प्रयोग पढाये हुए बिषय पर छात्रो के अर्जित ज्ञान, स्मृति को जानने के लिए करते थे।  गुरु संपूर्ण व्याख्यान के बीच में प्रश्न पूछा करते थे जिससे छात्रों में सक्रियता बनी रहती। गुरु शिष्य से संकेतों के आधार पर भी सही उत्तर निकलवाने का भी प्रयत्न करते थे जिससे छात्रों में स्व चिंतन ,निरीक्षण शक्ति एवं आत्मप्रेरणा का विकास होता था।
सूत्र विधि व्याकरण और दर्शन के गहनविषयों का शिक्षण सूत्र विधि से कराया जाता था व्याकरण में पहले सूत्र विधि से सूत्रो को रटाया जाता था उसके  पश्चात सूत्रों की व्याख्या के लिए भाष्य विधि तथा टीका विधि का अनुसरण किया जाता है पहले जहां  मौखिक स्मरण  को अधिक महत्त्व दिया जाता था लेकिन अब बालकों में रटने की प्रवृति के बजाय व्याकरण को समझने और उसके दैनिक जीवन में प्रयोग परअधिक बल दिया जाता है इसी कारण वर्तमान में यह सूत्र विधि अधिक प्रभावी नहीं है। 

निष्कर्ष दोस्तों आज हमने इस पोस्ट में संस्कृत शिक्षण की प्राचीन विधियों में से कुछ विधियों का अध्ययन किया है यह सभी विधियां मौखिक अभिव्यक्ति और स्मरण शक्ति पर अधिक बल देती है प्राचीन समय में जो बालक जितना अधिक विषय को मौखिक रूप से याद रखता था वह उतना ही प्रतिभाशाली माना जाता था। लेकिन वर्तमान में ये उतनी प्रासंगिक नही रही

शेष विधियो को अगली पोस्ट मेंजानेंगे

 धन्यवाद

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