रविवार, 16 जनवरी 2022

हूँ कुदरत का अभिन्न रूप मैं

 कभी सूर्य सा तेज बन तमस को हर लेता हूँ।
कभी चंचल मेघ बन बंजर धरा पर बरस लेता हूँ।
कभी शीतल पवन बन फिजाओं को महका देता हूँ।
कभी अविरल सलिल बन रास्ता बना लेता हूँ।
कभी बन आकाश सा अनंत गंभीर मैं हर शब्द में सुनाई देता हूँ।
हूँ कुदरत का अभिन्न रूप मैं, करिश्में सा दिखाई देता हूँ।
    कविता= हूँ कुदरत का अभिन्न रूप मैं






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