b>"अभिज्ञान-शाकुन्तलम्" नाटक के" पंचम सर्ग" की कथावस्तु-------------शार्ड्गरव,शारद्वत और गौतमी शकुंतला को लेकर हस्तिनापुर राजा दुष्यन्त के पास पहुंचते हैं।राजा के आदेशानुसार वे महल में प्रवेश करते हैं।राजा दुष्यंत उनका अभिनंदन करते हैं उसके पश्चात शार्ड़्गरव ने निवेदन किया कि आप ने कण्व द्वारा पालित उनकी पुत्री शकुन्तला के साथ गांधर्व विवाह किया था उसे ऋषि कण्व ने स्वीकार कर लिया है। इस समय शकुंतला गर्भवती हैं इसलिए कणव ने इसे आप के पास भेजा है इस संदर्भ में शार्ड़्गरव विवाहित स्त्री के संबंध में लोक व्यवहार का वर्णन करते हुए कहता है विवाहित स्त्री भले ही वह श्रेष्ठ चरित्र वाली क्यों न हो किन्तु वह सदैव अपने पिता के घर में रहती है तो उसके संबंध में लोग अनेक प्रकार की आशंका करने लगते हैं अतः बधू के बंधुजन विवाहित स्त्री को उसके पति के पास ही रखना चाहते हैं अतः आप इसे स्वीकार कीजिये ।लेकिन राजा दुष्यंत दुर्वासा के साथ के प्रभाव के कारण पूर्व में शकुंतला के साथ विवाह की घटना को पूर्ण रूप से भूला चुके थे इस कारण वह शकुन्तला को अपनी पत्नी मानने से इनकार कर देते हैं। तब वह समझ जाती है कि दुर्वासा के शाप के प्रभाव के कारण राजा दुष्यंत ने विवाह की घटनाओं को भुला दिया है तब वह अपनी अगूंठी को दिखाने के लिए निकालती है लेकिन उसके हाथ में अंगूठी नहीं थी गौतमी कहती हैं कि अवश्य ही तेरी अंगूठी शचीतीर्थ के जल की वन्दना करते हुए गिर गई है। अंगूठी के अभाव में राजा को पूर्व की बात स्मरण नही होने से राजा दुष्यंत शकुंतला अपनी बात पर अडिग रहता है । तब गौतमी और दोनों ऋषि कुमार शकुंतला को वहीं छोड़कर चले जाते हैं।पुरोहित राजा को उपाय बताता है। कि संतानोत्पत्ति तक यह मेरे घर पर रहे, साधुओं ने बताया है कि आपका पहला पुत्र चक्रबर्ती होगा, शकुन्तला का पुत्र यदि इन गुणों से संपन्न होगा तो आप इन्हें अंतःपुर में प्रविष्ट करा दें, यदि नहीं तो फिर इनका पिता के पास जाना ही उचित है। वह रोती हुई पुरोहित के पीछे पीछे जाती है तभीआकाश से एक अप्सरा आकर उसे उडा ले जाती हैं इसकी सूचना पुरोहित आकर राजा दुष्यन्त को देता है। यही पंचम अंक समाप्त होता है। पंचम सर्ग के महत्त्वपूर्ण पद्य---------- भवन्ति नम्रास्तरव: फलागमै नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिना घना: अनुद्धता सत्पुरुषा:सम्रद्धिभि: स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् फलों के आने पर वृक्ष नम्र हो जाते हैं अर्थात फलों के भार से नीचे झुक जाते हैं ।नये जल से पूर्ण होने पर बादल दूर दूर तक नीचे लटक जाते हैं।सज्जन पुरुष भी समृद्धि पाकर सुशील एवं विनम्र हो जाते हैं यह परोपकारियो का स्वभाव होता है। भानु:सकृद्युक्ततुरंग एव रात्रिन्दिवं गन्धवह:प्रयाति। शेष सदैवाहितभूमिभार: षष्ठांशवृत्तेरपि: धर्म: एष:।। लोकरक्षक सूर्य एक बार में ही अपने अश्व को जोतकर निरन्तर चलता रहता है वायु रात दिन बहती हैं शेष नाग सदैव पृथ्वी के भाग को उठाए रहने वाले हैं उपज के षष्ठ भाग से निर्वाह करने वाले राजा का भी यही कर्तव्य है औत्सुक्यमात्रमवसाययति प्रतिष्ठां क्लिश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेनम् । नातिश्रमापनयनाय तथा श्रमाय राज्य स्वहस्तधृतदण्डमिवातपत्रम्। जिस प्रकार स्वयं अपने हाथ से छत्ते का दण्डा पकड़ने से जितना आराम नही होता है अपितु पकड़ने वाले को थका अधिक देता है उसी प्रकार राज्य प्राप्ति होने पर सुख प्राप्ति की अपेक्षा दु:ख ही अधिक मिलता है। सतीमपि ज्ञातिकुलैकसंश्रयां जनो अन्यथा भर्तृमतीं विशंकड़्ते। अत: समीपे परिणेतुरिष्यते , प्रिया अप्रिया वा प्रमदा स्वबन्धुभि: विवाहित स्त्री यदि सर्वदा पितृ- गृह में ही रहती है तो भले ही वह श्रेष्ठ चरित्र ही क्यों न हो लोग उसके संबंध में भिन्न भिन्न प्रकार की शंका करने लगते हैं अत:वधूके परिजन विवाहित स्त्री को उसके पति के पास ही रखना चाहते हैं चाहे वह अपने पति के लिए प्रिय हो अथवा अप्रिय हो ।अर्थात प्रत्येक परिस्थिति में उसका वहां रहना ही अच्छा है । इदमुपनतमेवं रुपक्लिष्टकान्ति प्रथमपरिगृहीतं स्यान्न वेत्य व्यवस्यन्। भ्रमर इव विभाते कुन्दमन्तस्तुषारं न च खलु परिभोक्तुम नैव शक्नोमि हातुम ।। शकुंतला को बड़े ध्यान से देखकर राजा दुष्यन्त अपने मन में विचार करता हुअा कहता है कि गर्भवती के रूप में प्राप्त हुए इस निर्दोष शोभा वाली सुन्दरी को मैंने कभी अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था अथवा नहीं इस प्रकार किसी निर्णय पर नहीं पहुंचता हुआ मैं उसी प्रकार न तो इसका भोग कर सकता हूं ,न ही छोड़ सकता हूँ जिस प्रकार एक भम्रर ओस से भरे कुंद- पुष्प का रस न तो ग्रहण कर सकता है और नहीं उसे छोड़ सकता है मय्येव विस्मरणदारुणचित्तवृतौ वृतं रह: प्रणयमप्रतिपद्यमाने । भेदाद्भुवो: कुटिलयोरतिलोहिताक्ष्या भग्नं शरासनमिवातिरुषा स्मरस्य।। राजा दुष्यंत जब शकुंतला के याद दिलाने पर भी उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार नही करता है तो उससे क्रुद्ध होकर बोलती हुई शकुंतला की मुखाकृति व उसकी चेष्टाओ को देखकर मन में विचार करता है कि मेरे ऊपर अत्यंत क्रोध करते हुए लाल नेत्रों वाली इस शकुंतला ने अपने कुटिल भौहों को चढ़ा लिया है इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो इसने कामदेव के धनुष को ही तोड़ डाला है । स्त्रीणामशिक्षित पटुत्वमानुषीषु संदृश्यते किमुत या:प्रतिबोधवत्य:। प्रागन्तरिक्षगमनात्स्वमपत्यजात- मन्यैर्द्विजै: परभृता: खलु पोषयन्ति।। राजा दुष्यंत स्त्री जाति की स्वाभाविक चतुराई का वर्णन करते हुए कहता है कि स्त्रियों में जो मनुष्य जाति से भिन्न स्त्रियाँ है अर्थात जो पशु पक्षियों की स्त्री याेनि में उत्पन्न हुई है।उनमें भी स्वाभाविक चतुराई देखी जाती है फिर सभी विषयों में बुद्धि रखने वाली मानवी स्त्रियों के विषय में तो कहना ही क्या है? अर्थात वे तो न जाने कितनी चालाक व तुरंत बुद्धि वाली होंगी ।राजा इस संदर्भ में कोयल का उदाहरण देता हुआ कहता है कोयल अपने बच्चों के उडने में समर्थ होने तक अपने बच्चों का पालन पोषण को कौवो से कराती हैं। यदियथा वदति क्षितिपस्तथा त्वमसि किं पितुरुत्कलया त्वया। अथ तु वेत्सि शुचि व्रतमात्मन: पतिकुले तव दास्यमपि वरम् ।। प्रस्तुत कथन शार्ड़गरव मुनि का है वह शकुंतला से कहता है राजा जैसा कहते हैं यदि तू वैसी ही है तो तुम्हें पिता के कुल से क्या प्रयोजन है ?अर्थात तुम पतित आचरण वाली हो तो तुम्हारे पिता कण्व भी तुमसे से संबंध रखना उचित नहीं समझेंगे। आगे कहते हैं यदि तू अपने आचरण को पवित्र समझती है तो पति के परिवार में तुझे दासता करना भी उचित है अर्थात तुझे दासी बन कर भी अपने पति के पास ही रहना चाहिए। कुमुदान्येव शशांक: सविता बोधयति पंड्कजान्येव। वशिनां हि परपरिग्रहसंश्लेषपराड़्मुखी वृत्ति: ।।-- राजा दुष्यंत शकुंतला को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करता है वह कहता है कि चंद्रमा कुमुदिनियों को ही विकसित करता है कमलों को नहीं,सूर्य कमलो को ही विकसित करता है ,कुमुदिनियो को नहीं है, क्योंकि जितेन्द्रिय पुरुषों की मनोवृत्ति सदा पराई स्त्री के स्पर्श से विमुख रहती है । अर्थात जितेन्द्रिय पुरुष पराई स्त्री को स्पर्श करने की इच्छा नहीं करते है राजा के कहने का भाव यह है कि मैं भी शकुंतला को कभी स्वीकार नहीं करूंगा क्योंकि मेरे लिए यह पर स्त्री है,जिसे स्पर्श करना पाप है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें