मंगलवार, 20 नवंबर 2018

"शुकनासोपदेश" कादम्बरी का महत्त्वपूर्ण अंश (पार्ट -1)

"शुकनासोपदेश कादम्बरी का महत्त्वपूर्ण अंश":- शुकनासोपदेश कादम्बरी कथा का एक अत्यंत भव्य अंश  है, जो  बाणभट्ट की उद्दात कल्पना ,उनकी वर्णन शक्ति और राजसभाओ के जीवन के उनके अनुभव काप्रत्यक्ष प्रमाण है।                                                                                   बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी की कथा में उज्जयिनी के राजा  तारापीड़  के मंत्री  शुकनास द्वारा  तारापीड़ के पुत्र चन्द्रापीड़ को  युवराज बनने के अवसर पर युवावस्था, राजलक्ष्मी अादि से उत्पन्न दोषो से दूर रहने का जो सारगर्भित उपदेश दिया गया, वही शुकनासोपदेश है  जो बहुत ही शिक्षाप्रद है।                                                                                                                                                मंत्री शुकनास द्वारा दिया गया उपदेश इस प्रकार है ;-----  अपरिणामोपशमो दारुण लक्ष्मीमद:-------मंत्री शुकनास चन्द्रा पीड़  को कहते हैलक्ष्मी का मद  वृद्धावस्था में भी शांत नहीं होता है वह इतना  भयानक होता है,अर्थात यौवन का मद वृद्धावस्था में स्वयं शांत हो जाता है मदिरा पीने वाले का भी कालांतर में शांत हो जाता है परंतु धन संपत्ति से उत्पन्न जो मद है वह जीवन पर्यन्त  शान्त होने वाला नही है।         अविनयानामेकैकमप्येषामायानम् किमुत समवाय:  -------मंत्री शुकनासकहते हैं ।हे! राजकुमार तुम्हें विशेष सावधान रहना चाहिए क्योंकि जन्म- सिद्धऐश्वक्य, प्रभुत्व, नूतन युवावस्था, अनुपम सौंदर्य यह सब महान अनर्थ के कारण है और यह सब तुम्हारे पास है इनमें से अगर एक भी किसी के पास है तो वह अनर्थ उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ है फिर यदि समूह रूप में हो तो उस व्यक्ति को पूर्णतः नष्ट भ्रष्ट कर सकते हैं अतः इससे आपको बहुत सावधान रहना चाहिए।                                                                      अनुज्झितधवलतापि सरागैव भवति यूनां दृष्टि:-------मंत्री शुकनास युवावस्था के दोषों पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि युवावस्था में शास्त्रों के जल से धुली हुई निर्मल बुद्धि भी कलुषित हो जाती है।कहने का तात्पर्य यह है कि युवावस्था का इतना वेग तथा प्रभाव रहता है कि मनुष्य उसके दोषो के कारण अपने गंतव्य से भटक जाता है चाहे वह कितना ही बुद्धिमान क्यों  नही हो? इस अवस्था में  उपभोग्य विषयो में आसक्ति स्वाभाविक होती है ।                                          अपहरति च वात्येव शुष्कपत्रं समुद् भूतरजो भान्तिरतिदूरमात्म इच्छया यौवनसमये पुरुषम् प्रकृति--------युवावस्था में पुरुष की प्रकृति उसे आंधी तथा तूफान के सामान कहीं से कहीं उठाकर फेंक देती हैं ।अर्थात उनको अपने उद्देश्य से भ्रष्ट कर देती है।अर्थात जैसे अंधड़ सूखे पत्ते को दूर उडा ले जाता है वैसे ही युवा मन उसे रजोगुण के चक्कर में फँसाकर गलत विषयो की और खींच कर पथभ्रष्ट कर देता है।यहां मानव प्रकृति की उपमा बवडर से तथा पुरुष की सूखे पत्ते से की गई है।
युवावस्था की प्रकृति की तुलना
इन्द्रियहरिणहारिणी च सततमतिदुरन्तेयमुपभोग मृगतृष्णिका------राजकुमार को शुकनास विशेष सावधानी बरतने हेतु बता रहे  है कि जिस भाँति मरुस्थल में मध्याह के समय सूर्य की  निरन्तर किरणो मे जल का भ्रम पैदा करने वाली मरीचि प्यासे हिरणों को पुन:-पुन: आकृष्ट कर अन्तत: उन्हे नष्ट कर देती है उसी प्रकार शब्द स्पर्श आदि विषयो के उपभोग की कामना नवयुवको को बार-बार अपनी और खींचती है और उन्हे जीर्ण बनाकर नष्ट कर देती है।   भाव यह है कि  विषयो की तृष्णा का परिणाम हमेशा दुखद ही होता है।                                                                                                                                                             उम्मीद है कि आप सभी को शुकनासोपदेश में संग्रहित विषय वस्तु के बारे में कुछ जानकारी  प्राप्त हुई होगी शेष जानकारी  अगले पोस्ट में प्राप्त  होगी           ब्लाँग पर आने के लिए  धन्यवाद                          

1 टिप्पणी:

  1. क्या लिखें कुछ समझ नही आ रहा है लेकिन पढ़कर बहुत अच्छी जानकारी मिली और गर्व हुवा की उस जमाने मे भी इतने महान साहित्यकार थे । मैने इनका नाम तो पढ़ा है लेकिन उन्होंने क्या लिखा है यह नही पढ़ा था । आज इसे पढ़कर आश्चर्य चकित रह गए ।

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