कविता- लाँकडाउन और मजदूर जन
देखो, मेरे देश की इक तस्वीर जरा..
एक तरफ कोरोना की बडी जंग तो...
दूसरी तरफ मजदूर भाईयो की बेबसी ,बदहाली है।
जो गए थे शहरो की तरफ पैसा कमाने।
आज उनके पैरो मे पड़ गए छाले
लेकिन हाथो मे न कमाई है।।
बनाते है जो बडी बडी महलो सी इमारते
दूसरो के रहने को..
वो किराये के घर में रहने की भीजद्दोजहद कर रहे है
ऐसी किस्मत क्यो उन्होने लिखाई है।।
चल पडे है अपने गाँवो की और अपने पैरो के भरोसे
कविता- लाँकडाउन और मजदूर जन |
न ज्यादा शिकवा शिकायत किसी से
लडते अपने आप आत्मसम्मान की अथक लडा़ई है।।
नही फिक्र अपने पथ के शूलो से,
शूलो को भी फूल समझ कर चल पडे है।
इनके भीतर छिपे हिम्मत के जज्बे ने
सच्चे कर्मवीर की परिभाषा हमे समझाई है।।
विशेष इस छोटी सी अपनी रचना के माध्यम से हिन्दुस्तान के सभी कर्मवीर मजदूरो को,उनके हौसलो को सलाम करती हूँ आप ही हमारे हिन्दुस्तान की मजबूत नींव है।
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