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मंगलवार, 29 जनवरी 2019
शनिवार, 26 जनवरी 2019
महात्मा विदुर कीनीति, विदुरनीति (उद्योग पर्व)#vidurneeti
नमस्कार आप सभी का फिर से Welcome है संस्कृत के अनमोल साहित्य ,साहित्यकारो ,संस्कृत व्याकरण की जानकारी आप तक पहुचाने वाले " Sankrit jeeva " Blog पर
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आज हम महाभारत के महान चरित्र के रूप मे पहचाने जाने वाले नीति के वेत्ता ,धर्मनिष्ठ,सत्यभाषी महात्मा "विदुर" का चरित्र, उनके द्वारा बताई गई "नीति" के बारे में जानेंगे
दोस्तो, "विदुरनीति "महाभारत का बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रेरणादायी अंश है जो महाभारत के उद्योग पर्व केअध्याय 33 से अध्याय 40 में है।
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विदुर चरित्र#विदुरनीति
विदुर धृतराष्ट्र और पाण्डु के भाई थे। वे महाराज विचित्रवीर्य की दासी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । महर्षि माण्डव्य के शाप से इन्हे शूद्रयोनि में जन्म लेना पड़ा था।ये बडे ही बुद्धिमान,नीतिज्ञ,भगवद्भक्त और सदाचारी थे। ये धृतराष्ट्र के मन्त्री थे धृतराष्ट्र हर कार्य में इनकी सलाह आवश्यक मानते थे। पाण्डव और कौरवो के प्रति उनकी समान सहानुभूति थी लेकिन दुर्योधन के पाण्डवो पर अत्याचारो को देखकर इनकी सहानुभूति पाण्डवो के प्रति बढ़ गई ।विदुर साक्षात् धर्म के अवतार थे। वे जानते थे कि पाण्डवो पर कितनी विपत्तियाँ क्यो नही न आवे लेकिन अंत में विजय पाण्डवो की ही होने वाली है "यतो धर्मस्ततो जय:।" ये पाण्डवो को हर संकट से बाहर रखने का प्रयत्न करते थे हर संकट की समय से पूर्व पहचान जाने पर पाण्डवो को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में सावधान करने का कार्य करते थे जब इनको दुर्योधन द्वारा पाण्डवो को लाक्षाग्रह मे जलाकर मारने की युक्ति का आभास हुआ तो विदुर जी ने वरणावत जा रहे पाण्डवो को सचेत करने के लिए म्लेच्छ भाषा में ही युधिष्ठिर को उन सभी पर आने वाली विपत्ति की सूचना दे दी और साथ ही बचने का उपाय भी समझा दिया इतना ही नही पहले से ही सुरंग बनवा दी उनकी सूझबूझ और दूरदर्शिता के कारण ही सभी पाण्डव सकुशल बच निकले ।ये समय समय पर धृतराष्ट्र को दुर्योधन के मोह से बाहर निकालने का प्रयत्न करते रहते थे।धूतक्रीडा का भी इन्होने प्रबल विरोध किया अगर धृतराष्ट्र उनकी सच्ची, हितपूर्ण,धर्मयुक्त सलाह को मान लेते तो महाभारत के युद्ध का वीभत्स ,विनाशक परिणाम कभी सामने नही आता ।विदुरजी ज्ञानी और तत्वदर्शी होने के साथ साथ अनन्य भगवद्भक्त भी थे। इसी कारण श्रीकृष्ण जब पाण्डवो के दूत बनकर हस्तिनापुर आए तो उन्होने दुर्योधन के यहाँ भोजन करने मना कर दिया और विदुर जी के यहाँ भोजन किया अत: श्री कृष्ण भी उनके प्रति बहुत ही अनुराग रखते थे। विदुरनीति अध्याय 34 का सार ----जुए में पराजित पाण्डवों के वनवास चले जाने पर धृतराष्ट्र चिन्तित रहने लगे ।एक समय धृतराष्ट्र को रात को नींद नही आई तब उन्होने रात में ही विदुर जी को बुलाकर उनसे शान्ति का उपाय पूछा। उस समय विदुरजी जी ने धृतराष्ट्र धर्म औरनीति का जो सुंदर उपदेश दिया वह विदुर नीति के नाम से उद्योग पर्व के तैंतीस से चालीस तक आठ अध्यायों में संग्रहित है। |
विदुर नीति के 34 वे अध्याय का सार |
विदुर जी धृतराष्ट्र को कहते है कि मैं कुरु वंशियों के लिए
हितकर बात बताऊंगा वे धृतराष्ट्र से कहते है कि आप
कपटपूर्ण व अनुचित साधन वाले कामों पर आसक्त न हो। यदि
कोई कार्य उचित उपायो से सिद्ध न हो तो ग्लानी नहीं करनी चाहिए
धीर पुरुष को विचार करके कार्य करना चाहिए जल्दी में कोई कार्य आरंभ नहीं करना चाहिए।
लाभ,हानि,कोश,दण्ड को जानने वाले राजा का ही राज्य
टिक सकता है।धर्म और अर्थ का ज्ञानी ही राज्य पर अधिकार रख सकता है।
अविनयशीलता सम्पत्ति को नष्ट कर देती है
लोभ से प्राणी का विनाश होता है।
कल्याण के इच्छुक को पचने योग्य व हितकारी वस्तु ही खानी चाहिए
वृक्ष के कच्चे फल को तोड़ने से बीज भी नष्ट हो जाता है। राजा को शांत वृति से कर ग्रहण करना चाहिए।
मनुष्य को कर्म फल को सोचकर कर्म करना चाहिए नित्य असंभव को करने पुरुषार्थ व्यर्थ जाता है।
निष्फल क्रोध व प्रसन्नता वाले राजा को प्रजा नहीं चाहती हैं।
कोमल सृष्टि वाले राजा से प्रजा प्रेम करती है।
जो राजा शक्तिहीन होने पर भी शक्ति संपन्न दिखाई देता है उसका विनाश नहीं होता है।
दृष्टि मन वचन कर्म से प्रजा को प्रसन्न रखने वालों से प्रजा प्रसन्न रहती है
भयभीत प्रजा राजा का परित्याग कर देती हैं।
अन्याय में स्थित राजा का राज्य नष्ट हो जाता है।
धर्म पालक राजा का ऐश्वार्य बढ़ता है और अधर्मी राजा की भूमि सिकुड़ जाती है।
राज्य की रक्षा का उपाय किया जाना चाहिए।
राज्य लक्ष्मी परमात्मा को नहीं छोड़ती है।
पागल व बातूनी से भी तत्व की बात ग्रहण करनी चाहिए ।
राजा लोग गुप्तरुपी नेत्रों से देखते हैं।
आसानी से दूध देने से वाली गाय को कष्ट नहीं होता
स्वयं झुकी हुई लकड़ी को लोग को और नहीं झुकाते हैं।
धीर पुरुष को बलवान के सामने झुक जाना चाहिए
कुल की रक्षा सदाचार से होती है। अनाज आदि की रक्षा तौल से होती है।
चरित्रहीन का कुल श्रेष्ठ नहीं होता है।
ईर्ष्या करने वाले का रोग असाध्य होता है
धनी मध्यम व निर्धन के भोजन में क्रमश मांस, दूध-दही तथा तेल की अधिकता होती हैं।
दरिद्र लोग सदा स्वादिष्ट भोजन करते हैं ।धनवानों में भोजन करने की शक्ति नहीं होती ।
धीरता युक्त राजा की राज्य लक्ष्मी अत्यंत सेवा करती है ।
वशीभूत आत्मा "मित्र "व अनियंत्रित आत्मा "शत्रु" है।
इन्द्रीय रूपी शत्रुओ को न जीतने वाला राजा सदा पराजित होता हैं
पापियों के साथ कभी मेल नही करना चाहिए।
पांच विषयों की ओर दौडने वालों को भी विपत्तियां जकड़ लेती हैं
गुणवान पुरुषों का बल केवल क्षमा है।
वाणी पर नियंत्रण बहुत कठिन माना गया है।
दूषित शब्दों वाली वाणी अनर्थ का कारण बनती है।कटु।
वचनोंसे किया गया घाव नहीं भरता है।वाणी रूपी कांटे को
निकालना संभव नहीं है।
जिस प्रकार अनसूया ,आर्जव,शौच दुष्टो के गुण नहीं हो सकते है।उसी प्रकार आत्मज्ञान ,अचंचलता आदि गुण अधम पुरुष
में नहीं पाए जाते। देवता जिसे पराजित करना चाहते हैं उसकी बुद्धि हर लेते हैं।
देवता जिसकी विजय चाहते है उसे बुद्धियुक्त कर देते है।
विशेष- विदुर नीति के चौंतीस वे अध्याय में कुछ 86 श्लोक हैं
नीतिशतक प्रश्नोत्तरी यह भी पढ़े
शुकनासोपदेश,कादम्बरी का महत्त्वपूर्ण पार्ट-1 यह भी पढ़े
मंगलवार, 22 जनवरी 2019
काव्य के लक्षण क्या है? (Kavya)
काव्य क्या है? "काव्य "कला का वह सर्वोत्कृष्ट रूप है जो जीवन को सौन्दर्य से भर देता है" काव्य" में शब्दो की रमणीयता और अर्थ की अनुकूलता पायी जाती है अलंकार की शोभा, गुणो की विशिष्टता पायी जाती है।" काव्य "वह उत्तम औषधि है जो निरन्तर सेवन करने पर सभी शारीरिक और मानसिक रोगो को दूर करने में समर्थ है । काव्यकारो ने अपने काव्य के प्रारम्भ में "काव्य के लक्षण" दिए है संस्कृत भाषा में अनेक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है जिसमें काव्य के लक्षण दिए गये है काव्यालंकारशास्त्र या साहित्यशास्त्र- काव्य शास्त्रीय तत्वों का विवेचन करने वाले ग्रंथो का प्राचीन नाम" काव्यालंकार शास्त्र "है काव्यशास्त्र में रस,गुण,अलंकार आदि अनेक तत्वों का विवेचन होता है। आचार्य वामन के अनुसार काव्यशास्त्र सम्बन्धी ग्रंथो को काव्यालंकार शास्त्र इसलिए कहा जाता है क्योकि उनमे काव्यगत सौन्दर्य का निर्देश होता है। आधुनिक युग में काव्यालंकारशास्त्र की अपेक्षा "साहित्यशास्त्र "नामक शब्द का प्रयोग होने लगा है रुय्यक ने अपने ग्रंथ का नाम साहित्य मीमांसा,विश्वनाथ कविराज ने अपने ग्रंथ का नाम साहित्यदर्पण रखा है। काव्य के अंतर्गत दृश्यकाव्य और श्रव्यकाव्य दोनों का समावेश होने के कारण काव्य शास्त्र को समस्त काव्यो की कसौटी माना गया है।अतः काव्य के मर्म को समझने के लिए काव्यशास्त्र का ज्ञान होना अनिवार्य है। काव्यशास्त्रीय ग्रंथ और उनके रचनाकार काव्यालंकार- भामह , काव्यादर्श- दण्डी , काव्यालंकार सार संग्रह-उद्भट, काव्यालंकारसूत्र -वामन, काव्यालंकार-रूद्रट ध्वन्यालोक -आनन्दवर्धन, काव्यमीमांसा-राजशेखर , दशरूपक-धनञ्जय, वक्रोक्तिजीवितम्-कुन्तक , सरस्वतीकण्ठाभरण- भोजराज, कविकण्ठाभरण- क्षेमेन्द्र काव्य प्रकाश-मम्मट, साहित्यदर्पण - विश्वनाथ कविराज ,रसगंगाधर- पण्डित जगन्नाथ
आचार्यो द्वारा दी काव्य के संबंध में दी गई परिभाषाओं में से कुछ परिभाषाएँ यहां प्रस्तुत की जा रही है जिनको पढ़ने के पश्चात आप काव्य को स्पष्ट रूप में जान पायेंगे
काव्य की परिभाषाएँ |
अग्निपुराणकार महर्षि व्यास के अनुसार संक्षेपाद्वाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली काव्यं स्फुरदलंकारं गुणवद् दोषवर्जितम् संक्षिप्त, इष्ट, अर्थयुक्त, स्फुट अलंकारयुक्त, गुणयुक्त तथा दोषरहित पदावली को काव्य कहते है। आचार्य भामह ने "काव्यालंकार में लिखा है कि "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात अर्थानुगत शब्दो के समुदाय को काव्य कहते है यह अर्थानुगत शब्दसमुदाय चमत्कारपूर्ण तथा कवि प्रतिभा प्रकाशित होना चाहिए। आचार्य दण्डी काव्य की परिभाषा करते हुए कहते है "शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली" अर्थात् इष्ट या चमत्कृत अर्थ से परिपूर्ण पदावली ही काव्य है। आचार्य वामन के अनुसार रीतिरात्मा काव्यस्य। विशिष्टपद रचना रीति आचार्य वामन ने विशेष संघटना काे रीति माना है उनके अनुसार रीति ही काव्य की आत्मा है आचार्य कुन्तक के अनुसार शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविन्यापारशालिनी । बन्धे व्यवस्थित्तौ काव्यं तद्विदाहादकारिणी आचार्य कुन्तक ने अपने काव्य लक्षण में वक्रोक्ति को काव्य का प्राणभूत तत्त्व माना है। आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में ध्वनि को काव्य माना है। ध्वनिरात्मा काव्यस्य रसगंगाधरकार पण्डित जगन्नाथ ने काव्य को इस प्रकार परिभाषित किया है- रमणीयार्थ प्रतीपादक:शब्द काव्यम् अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द समुदाय काव्य है भोज ने सरस्वती कण्ठाभरण में काव्य का लक्षण इस प्रकार दिया है निर्दोषं गुणवत् काव्यमलंकारै अलंकृतम्। रसान्वितं कवि: कुर्वन् कीर्ति प्रीति च विन्दति ।। वाग्देवताकार आचार्य मम्मट ने दोषहित गुणसहित , यथा संभव अलंकारयुक्त शब्दार्थ को काव्य माना है तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलड्कृति पुन:क्वापि (काव्यप्रकाश) नोट यह काव्यलक्षण Exams में पूछा जाता है "साहित्यदर्पण" के रचयिता कविराज "विश्वनाथ" रसात्मक वाक्य को काव्य कहते है। "वाक्यं रसात्मकं काव्यम् (Important)
काव्यकारो द्वारा दिए गए उक्त लक्षणो के आधार पर कह सकते है कि काव्य कवि का कर्म है जहाँ अभिष्ट अर्थ की प्रतीति कराने वाला शब्द समुदाय विद्यमान हो,जहाँ रस में बाधक तत्त्वो का अभाव हो,गुणऔर अलंकारो का सद्भाव हो यह भी पढे़ "भारवे:अर्थगौरवम्" किरातार्जुनीयम् का प्रथम सर्ग
शुक्रवार, 18 जनवरी 2019
कुमारसम्भव महाकाव्य की प्रसिद्ध सूक्तियाँ
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य कुमारसम्भव में बहुत ही सुन्दर सूक्तियो का प्रयोग किया है जो उनके महाकाव्य की शोभा को बढा़कर दुगुना करने में सफल रही है उनके द्वारा तपस्या करती पार्वती के मुख से जो कहलवाया गया है वह उनकी वाक्पटुता का साक्षी है, पार्वती की परीक्षा लेने आए ब्रह्मचारी रूप में शिव के माध्यम से जो कथन कहे गए है वह महाकवि कालिदास की विदत्ता के पर्याय है। यह भी पढ़े संस्कृत नाट्य साहित्य में कालीदास का स्थान** अभिज्ञान शाकुन्तलम् महाकाव्य के पंचम सर्ग की कथावस्तु कुमारसम्भव महाकाव्य महाकाव्य की प्रसिद्ध सूक्तियाँ-(1)शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।(2) पर्याप्तपुष्पस्तबकानम्रा संचारिणी पल्लविनी लतेव। (3)वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।(4)फलानुमेया:प्रारम्भा:संस्कारा:प्राक्तना इव ।(5)श्रद्धेव साक्षाद् विधिनोपपन्ना। (6)अपवाद इवोत्सर्गा व्यावर्तयितुमीश्वर:।(7)आसीत् महाक्षितामाद्य:प्रणवछन्दसामिव। (8)मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थ स्मृतिरन्वगच्छत् ।(9)कठिना:खलु स्त्रिय:।(10)प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता। (11)न धर्मवृद्धेषु वय:समीक्ष्यते। (12)न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्। (13)क्लेन फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते ।
ये सभी सूक्तियाँ ज्ञान की भंडार है इनमे जीवन के वास्तविक अनुभव की झलक स्पष्ट दिखाई देती है महाकवि कालिदास द्वारा प्रयुक्त ये सभी सूक्तियाँ महाकाव्य में उत्कर्ष को बढा़ने वाली है।
बुधवार, 16 जनवरी 2019
सांख्यदर्शन में मोक्ष, जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त क्या है
सांख्य के अनुसार कैवल्य/अपवर्ग या मोक्ष सांसारिक जीवन केआध्यात्मिक,आधिभौतिक,आधिदैविक त्रिविध दु:खो की आत्यान्तिक निवृत्ति ही मोक्ष,अपवर्ग,कैवल्य है। मोक्ष में पुरुष अपने नित्य शुद्ध चैतन्य स्वरूप में प्रकाशित रहता है। पुरुष त्रिगुणातीत,बन्धन रहित और परिणामातीत है बन्धन इस जीव का होता है शुद्ध पुरुष का नही ।पुरुष को अपने स्वरूप का ज्ञान स्वयं को अचेतन प्रकृति से भिन्न मान लेने पर होता है यह विवेक ज्ञान ही सांख्यदर्शन में मोक्ष /अपवर्ग या कैवल्य है। पुरुष को जब इस प्रकार का ज्ञान होता है कि मै यह नही हूँ मैं अचेतन विषय या ज्ञेय नही हूँ,मै जड़ प्रकृति नही हूँ यह मेरा नही है यह सब मेरा नही है मेरा कुछ नही है मै ममकार से रहित हूँ मै अहंकार भी नही हूँ और जब यह ज्ञान तत्वाभ्यास से सुदृढ़ हो जाता है और जानने के लिए कुछ शेष नही रहता है तब इसे ही विशुद्ध ज्ञान कहते है। यह भाव निम्न कारिका में प्रस्तुत किया गया है एवं तत्त्वाभ्यासान् नास्मि न मे ना असमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद् विशुद्धं केवलमुत्पत्पद्यते ज्ञानम् । उक्त विवरणानुसार विशुद्ध चैतन्य, पुरुष का स्वरूप है जब जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तो वह ही मोक्ष कहलाता है सांख्यदर्शन में मोक्ष या मुक्ति के प्रकार सांख्य दर्शन ने मोक्ष मुक्ति के दो प्रकार माने है जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति जीवन मुक्ति- इस प्रकार की मुक्ति सम्यक ज्ञान प्राप्त होने पर होती है इसमें जीव देह से मुक्त नही होता है लेकिन देह के रहने पर भी देह से संबंध नहीं रहता है कर्मो का कोई बंधन नहीं होता, जीव अपने प्रारब्ध कर्मों का भोग केवल शरीर से करता है लेकिन उसमें लिप्त नहीं होता है विदेह मुक्ति जब जीव अपने प्रारब्ध कर्मो का भोग पूर्ण कर लेता है तो शरीर भी नष्ट हो जाता है यही मुक्ति विदेह मुक्ति कहलाती है। सांख्य दर्शन में जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति को एक सुन्दर उदाहरण द्वारा समझाया गया है जैसे कुम्हार का चाक , कुम्हार के हाथ हटा लेने पर भी पूर्व वेगके कारण थोड़ी देर घूमता रहता है और फिर वेग समाप्त हो जाने पर स्वत ही बंद हो जाता है।उसी प्रकार जीवन मुक्त का शरीर अपने प्रारब्ध कर्म के अनुसार चलता रहता है और उनके समाप्त होने पर उसका शरीर भी नष्ट हो जाता है। सांख्यदर्शन में माना गया है कि अन्त:करण अवच्छिन्न जीव का लिंगशरीर के रूप में बन्धन होता है और उसी का मोक्ष होता है। सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति ही बंधती है और प्रकृति ही मुक्त होती है ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में लिखा है- तस्मान् न बध्यते न मुच्यते नापि संसरति कश्चित । संसरति बध्यते मुच्यते न नानाश्रया प्रकृति: ।। प्रकृति को एक नर्तकी के समान प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि वह पुरुष के समक्ष रंगमंच पर अपना प्रदर्शन करके नर्तकी के समान चली जाती है जब पुरुष प्रकृति के स्वरूप को देख लेता है तब विवेकज्ञान द्वारा मुक्त हो जाता है। प्रकृति भी पुरुष को भोग तथा अपवर्ग(मोक्ष) रूपी प्रयोजन सिद्ध करके निवृत्त हो जाती है। जैसा कि निम्नलिखित कारिका में संकलित है रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथा आत्मनं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृति:।।
बुधवार, 2 जनवरी 2019
उपनिषद (Upnishad) -परीक्षा में पूछे जाने वाले महत्त्वपूर्ण प्रश्न
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