वेदांगों का परिचय **पिछली पोस्ट में हमने वेदांगों के छ: भेदों में से शिक्षा,कल्प के बारे में जाना। शिक्षा वेदरूपी शरीर की घ्राणेन्द्रिय (नासिका)कहलाती है,तो कल्प को हस्त (हाथ)कहा गया है। वेद को यदि शरीररूप में कल्पना करे तो सभी वेदांग वेद रूपीशरीर के सहायक अंग है जिनके बिना इस वेदरूपीशरीर की कल्पना असंभव है।इस पोस्ट के अंतर्गत शेष वेदांगों के बारे में Detail में जानेंगे व्याकरण--व्याकरण वेद का मुख है।शब्दो की व्युत्पत्ति के उद्देश्य एवं उनके निर्धारण की दृष्टि से ही इसकी रचना हुई "व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणं" व्याकरण के बिना शब्दो का ज्ञान नही हो सकता है।महर्षि पाणिनी की अष्टाध्यायी व्याकरण पर आधारित ग्रंथ माना गया है कात्यायन की वार्तिक,महर्षि पतञ्जलि का महाभाष्य भी व्याकरणके प्रमुख ग्रंथ है। व्याकरण के उदेश्य की बात करे तो महर्षि पतंजलि के महाभाष्य में व्याकरण के अध्ययन के प्रयोजन को दो भागों में बांटा गया है । प्रधान प्रयोजन,गौण प्रयोजन महर्षि पतञ्जलि ने अपने "महाभाष्य" में व्याकरण के5प्रमुख प्रयोजन बताए है जो व्याकरण अध्ययन की अनिवार्य को बताते हैं" रक्षोहागमलघ्वसन्देहा: प्रयोजनम्" 1. रक्षा महर्षि पतंजलि के अनुसार वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है क्योकि वेद मंत्रो में वर्ण आगम,वर्ण लोप,वर्ण विकार आदि को व्याकरण का अध्येता ही समझकर सही प्रकार उच्चारण कर सकता है। 2ऊह-वेदमें सभी लिंगो तथा सभी विभक्तियों में मन्त्र नहीं कहे गए है यज्ञ करने वाले को पुरोहित के द्वारा ही उनका यथा अवसर परिवर्तन आवश्यक है और यह कार्य व्याकरण का अध्ययन करने वाला ही कर सकता है। 3आगम - छ:वेदांगो में व्याकरण प्रधान है।प्रधाान में किया गया यत्न लाभदायक है। ब्राह्मण को बिना कारण ही धर्म तथा छ:अंगो से युक्त वेद पढ़ना चाहिए 4लघु:व्याकरण ही वह लघु उपाय है। जिससे शब्दो का ज्ञान बहुत आसानी से हो जाता है। 5असंदेह- वैदिक शब्दों के विषय में असंदेह का निवारण व्याकरण से ही हो सकता है।वेद में जना: जनास: दोनो ही रूप उपलब्ध होते है लेकिन जिसने व्याकरण का अध्ययन नही किया है वहजनास:शब्द को अशुद्ध मान सकता है। उपरोक्त पांच प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भी व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है। निरुक्त-ये हैं चौथा वेदांग है। वैदिक मंत्रों के क्लिष्ट ,अस्पष्ट पदो का विभाजन कर अर्थो की सरल व्याख्या करना ही निरुक्त का प्रमुख प्रयोजन है जिस प्रकार व्याकरण के द्वारा हमें शब्दों का सही ज्ञान होता है उसी प्रकार निरुक्त हमे वैदिक शब्दो के अर्थ का ज्ञान कराता है। निरुक्त को व्याकरण का पूरक माना गया है। निघणटु को आधार मानकर निरुक्तकी रचना की गई है।निरुक्त के रचनाकार यास्क है। निरुक्त में कुल तीन काण्ड है, यास्क के निरुक्त में12अध्याय है सायणाचार्य के अनुसार अंतिम दो अध्याय परिशिष्ट के रूप में जोड़े गए हैं। इस प्रकार निरुक्त में कुल14 अध्याय हो गए। निरुक्त के कार्य पाँच प्रकार के माने जाते ।1.वर्णागम 2.वर्णविपर्यय 3.वर्णविकार 4.वर्णलोप 5.धातु का अनेक अर्थो में प्रयोग छंद-"छंद पादौ तु वेदस्य"छंद वेदांग को वेद-पुरुष के पाद के रूप में जाना है। कात्यायन ने अपनी सर्वानुक्रमणी में अक्षर परिमाण को ही छन्द का लक्षण बतलाया है---"यदक्षरपरिमाणं तच्छन्द: " अर्थात् जहाँ अक्षरो की संख्या निश्चित होती है। उसे छन्द कहते है। यास्काचार्य ने छन्द शब्द की व्युत्पत्ति छद्(ढ़कना) धातु से हुई है। जो यज्ञादि कर्मो एवं वैदिक अनुष्ठानो को आसुरोकी विघ्नबाधा से रक्षा करता है। "छादयति आवृणोति मन्त्रप्रतिपाद्ययज्ञादीन इति छन्द:" सभी वैदिक छन्दवार्णिक है वेद में मुख्य रूप से 7 छन्द है। गायत्री छंद (24अक्षर),उष्णिक छंद(28 अक्षर),अनुष्टुप छंद(32 अक्षर),बृहति छंद(36अक्षर),पंक्ति(40),त्रिष्टुप(44),जगती(48) ज्योतिष ज्योतिष वैदिककाल का महत्त्वपूर्ण विषय है।यज्ञादि केलिए शुभमुहूर्त ,शभ कार्यो के प्रारंभ ,निषेघ आदि की जानकारी ज्योतिषशास्त्र से होती है।ज्योतिष में 27नक्षत्र जातेहै सूर्य चन्द्र आदि ग्रह माने जाते है। 27 नक्षत्रो केआधार पर ही सूर्य,चन्द्रमा की स्थिति का वर्णन है वेदांग ज्योतिष ज्योतिष का प्रमुख ग्रंथ है जिसके रचनाकार लगधाचार्य है ।वेदांग ज्योतिष के प्राचीनतम टीकाकार सोमाकार है। वराह मिहिर का सूर्य सिद्धांत भी ज्योतिष का उल्लेखनीय ज्योतिष ग्रंथ है। Thank for reading ,please share this post and follow my blog Read also संस्कृत साहित्य प्रश्नोत्तरी
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