गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

प्रकृति के अस्तित्व के तर्क, सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टिक्रम (सांख्यकारिका)

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समन्वयात् शक्तित: प्रवृतेश्च ।           कारणकार्यविभागात् अविभागात् वैश्वरुपस्य ।।          1. भेदानां परिमाणात् - -जगत के संपूर्ण पदार्थ परिमित अर्थात् सीमित है।परिमित पदार्थ का आधार परिमित को नहीं माना जा सकता क्योंकि इसे अनवस्था दोष उपस्थित होता है।यह अपरिमित आधार प्रकृति ही है।                                                                                                                 2.समन्वयात् --प्रकृति के सभी पदार्थ सत्व,रजस और तमस् गुणो से निर्मित है केवल प्रकृति ही इन तीनो गुणो को समन्वय करने की क्षमता रखती है पुरुष ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह निर्गुण है।                                                                                      3.शक्तित:प्रवृत्तेश्च-- कोई भी कार्य तभी उत्पन्न होता है जब उसके लिए समर्थ कारण विद्यमान हो। जगत में दो प्रकार के पदार्थ है स्थूल पदार्थ और सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ । इस जगत का समर्थ कारण वही हो सकता है जो इन दोनों पदार्थों को धारण कर सके। यह कारण महाभूत नहीं हो सकते क्योंकि वह सूक्ष्म पदार्थों को धारण नहीं कर सकते ।यह कारण पुरुष भी नहीं हो सकता क्योंकि शुद्ध चेतन्य स्वरूप होने के कारण वह जड़ पदार्थों को धारण नहीं कर सकता। अत:जगत का समर्थ कारण प्रकृति ही हैं।                                                                                                                          4. कार्यकारणविभागात् --सत्कार्यवाद के अनुसार कारण की व्यक्त अवस्था को कार्य कहते है  व्यक्त कार्य अव्यक्त अवस्था में कारण रूप में विद्यमान रहता है यह जगत एक कार्य है  जो अपनी अव्यक्त अवस्था में कारण रूप में प्रकृति में ही विद्यमान रहता है।                                                                                                                      5.अविभागात् वैश्वरुपस्य *-सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य तिरोभूत होकर पुन: कारण में ही लीन हो जाता है जैसे सोने की अँगूठी गलकर पुन:सोना बन जाती है उसी प्रकार जगत प्रलयावस्था में पुन:  प्रकृति में ही विलीन हो जाता है।                                                                                                                                                   " सृष्टिक्रम  "                                                                                                   ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में सृष्टिक्रम को निम्नलिखित पद्य में प्रस्तुत किया है।                                                                                                  प्रकृतेर्महांस्ततो अहंकारतस्माद् गणश्च षोड़शक: ।       तस्मादपि षोड़शकात्पञ्चभ्य:पञ्च भूतानि ।।              सांख्यकारिका के उक्त पद्य में जगत के विकासक्रम को स्पष्ट रूप में बताया गया है। पद्य के अनुसार जगत का विकास प्रकृति से होता है प्रकृति सतत परिणामी है जिसका साम्यावस्था में सरूप परिणाम होता हैअर्थात सत्व गुण की क्रिया प्रतिक्रिया सत्व गुण से, रजस  की रजस गुण से तथा तमस की तमस से होती हैं यह साम्य व्यवस्था तब  भंग होती है जब पुरुष के संयोग से प्रकृति में गुण क्षोभ पैदा होता है और विरूप परिणाम आरम्भ  होता है  इस अवस्था में तीनों गुण एक दूसरे से  क्रिया प्रतिक्रिया करते हैं और गुणो के संयोजन से ही जगत का विकास होता है। यह वैषम्यावस्था कहलाती है। प्रकृति में विरूप परिणाम आरंभ होने के बाद सर्वप्रथम जो विकार उत्पन्न होता है वह महत् (बुद्धि) है इस महत् (बुद्धि) से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार के तीन भेद हैं सात्विक अहंकार,राजसिक अहंकार और तामसिक अहंकार । राजसिक अहंकार सबसे पहले सक्रिय होता है वह दोनों को गति प्रदान करता है। सात्विक के अहंकार से एकादश इंद्रियों का विकास होता है पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और एक उभयात्मक इन्द्रिय मन है। और तामसिक अहंकार से पञ्चतन्मात्राए  उत्पन्न होती है। ये शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध है ।ये पांच तन्मात्राए अति सूक्ष्म होती है इन पंचतन्मात्राओं से स्थूल पंच महाभूतों का विकास होता है ।शब्द तन्मात्रा से आकाश ,स्पर्श तन्मात्रा से वायु, रूप तन्मात्रा से अग्नि ,रस तन्मात्रा से जल और गंधतन्मात्रा से पृथ्वी इन पंचमहाभूतों का विकास होता है। पंच महाभूतों से ही जगत के सभी स्थूल पदार्थों का विकास संघात रूप में होता है।                                                                                                       इस प्रकार इस सृष्टिक्रम से स्पष्ट होता है कि जगत रूपी कार्य प्रकृति रूपी कारण से ही उत्पन्न होता है।अव्यक्त जगत प्रकृति के विरूप परिणाम के कारण ही व्यक्त रूप धारण करता है। तथा प्रलय अवस्था में पुनः यह जगत प्रकृति में ही विलीन हो जाता है ।                                                                                                       

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