सत्कार्यवाद क्या है
Hello friands आज हम सांख्यकारिका के अन्तर्गत सत्कार्यवाद की अवधारणा के बारे में जानेंगे साख्यकारिका से Relative post आप यहाँ क्लिक करके पढ़ सकते ।है ताकि आप इस Topic को बेहतर रूप में जान पायेंगे। Click here सांख्यकारिका , सांख्यदर्शन के 25 तत्त्व सत्कार्यवाद क्या है?- सांख्यदर्शन में सत्कार्यवाद का सिद्धान्त बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना गया है इसे कारण-कार्य सिद्धान्त भी कहते है। सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य अपने कारण में पूर्व में ही विद्यमान होता है। कार्य कोई नवीन वस्तु नहीं हैबल्कि यह कारण की बदली हुई अवस्था है अर्थात कारण कार्य में पहले अव्यक्त रूप में विद्यमान था जब यह व्यक्त रूप में सामने आता है तो कार्य कहलाता है।कार्य कारण में सत् होता है यही सत्कार्यवाद है । ईश्वरकृष्ण ने सत्कार्यवाद की स्थापना कारिका में इस प्रकार की है। असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च सत्कार्यम् ।। ईश्वरकृष्ण ने सत्कार्यवाद की पुष्टि हेतु निम्न तर्क दिए हैं असद् अकरणात् - सत्कार्यवाद की पुष्टि हेतु पहला तर्क यह है कि जिसका अस्तित्व नहीं है उसकी कभी भी उत्पत्ति नहीं हो सकती है।उदाहरण के लिए यदि बालू से घी निकालने का प्रयास करने पर घी नही निकल सकता है क्योकि बालू में घी का अस्तित्व नही है। उपादान ग्रहणात्- किसी कार्य की उत्पत्ति किसी उपयुक्त कारण से ही हो सकती है। जैसे तेल उत्पन्न करने के लिए तिलहन खोज की जाती हैं दही उत्पन्न करने के लिए दूध की खोज की जाती है। इससे स्पष्ट है कि कार्य अपने उपयुक्त कारण में ही पहले से स्थित होता है। सर्वसम्भव अभावात्- प्रत्येक वस्तु से प्रत्येक वस्तु उत्पन्न नही हो सकती जैसे बालू से घी नही निकलता है। यदि कार्य अपने खास कारण में छिपा नही रहता है,तो फिर किसी भी वस्तु से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति हो जाती। शक्तस्य शक्यकरणात् -इस तर्क के अनुसार कोई कारण उसी कार्य को उत्पन्न कर सकता है जिसमे वह समर्थ हो जैसे दूध से दही,मलाई आदि बन सकते है इससे खाद नही बन सकता इससे भी सिद्ध होता है कि कोई कार्य पहले से ही अपने कारण में निहित होता है। कारणाभावाच्च सत्कार्यम् -कारण और कार्य एक दूसरे से अभिन्न है। इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है।कारण कार्य का छिपा हुआ रूप है और कार्य कारण का खुला हुआ रुप । इससे पता चलता है कि कार्य कारण में उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान रहता है। स्पष्ट रूप में सत्कार्यवाद की अवधारणा -*कारण कार्य को अभिन्न मानकर चलती है कारण की व्यक्त अवस्था ही कार्य है। व्यक्त रूप में आने से पहले वह कारण में स्थित होता है। प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति प्रत्येक वस्तु से नही हो सकती है इसका कारण है प्रत्येक वस्तु में भिन्न भिन्न वस्तु की उत्पत्ति का सामर्थ्य है अगर ऎसा नही होता तो बालू से भी तेल उत्पन्न होता। यह भी पढ़े सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष का स्वरूप
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