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आज हम दशरूपककार धनंजय द्वारा अपने नाटक शास्त्रीय ग्रन्थ दशरूपक में बताई "अर्थप्रकृति" के सम्बन्ध में जानेंगे।
धनञ्जय ने अपने ग्रंथ दशरूपकम् में कथावस्तु का
विभाजन पाँच संधियों के आधार पर किया है। उनके
अनुसार अर्थ प्रकृति और अवस्थाओ के संयोग को
संधि कहते है। ये संधियाँ ही कथावस्तु का आधार होती हैं अत:इन संधियो को समझने से पूर्व इस Post में
अर्थप्रकृति के बारें जानेंगे।
अर्थप्रकृति किसे कहते है अर्थप्रकृति में अर्थ का अभिप्राय प्रयोजन अथवा फल है प्रकृति का अर्थ फल या प्रयोजन की सिद्धि में कारण या हेतु है।इस प्रकार हम कह सकते है कि फल या प्रयोजन की प्राप्ति के लिए जो
उपाय है वही अर्थप्रकृति कहे जाते है।
ये क्रमश: बीज, बिन्दु,पताका,प्रकरी,कार्य पाँच होती है।
इन पाँचो में से बीज,बिन्दु,कार्य ये तीन आवश्यक
अर्थप्रकृतियाँ मानी गई है।जबकि पताका ,प्रकरी समस्त रूपकों में अनिवार्य नही है।जिस रूपक मेॆ नायक को
सहायता की आवश्यकता नही होती है वहाँ इन दोनो की अनुपस्थिति होती है। अर्थप्रकृति कितने प्रकार की होती है।
उपरोक्त कारिका के अनुसार धनंजय ने अपने ग्रंथ
अर्थप्रकृति |
" दशरूपकम्" में पाँच अर्थप्रकृतियाँ बतायी है।
(1)बीज (2)बिन्दु (3)पताका (4)प्रकरी (5)कार्य
बीज---स्वल्पोछिष्टस्तु तद्हेतुर्बीजं विस्तार्यनेकधा: । जो किसी नाटक के आरम्भ में अल्परूप में निर्दिष्ट तत्व है लेकिन प्रयोजन अथवा फल प्राप्ति में मुख्य कारण बनता है ।वह बीज नामक अर्थप्रकृति कहलाती है
यह बीज अनेक प्रकार से विस्तृत रूप धारण करता है जिस प्रकार बीज देखने मे छोटा होता है लेकिन यही समय के साथ अनेक शाखाओ के रूप में विस्तृत रूप से फैलता है और हमें फल प्रदान करता है उसी प्रकार किसी नाटकादि में कोई
कथन या कोई छोटा सा विचार जो नाटक के फल की प्राप्ति का प्रारम्भिक कारण है वह "बीज "नामक अर्थप्रकृति होती है ।उदाहरण के रूप में रत्नावली नाटक में दैव(भाग्य)अनुकूल
होने पर सभी कार्य सिद्ध होते है।यह कथन यौगन्धरायण को अपने स्वामी उदयन के लिए कार्य प्रारम्भ करने की
प्रेरणा देता है।
बिन्दु---अवान्तरार्थविच्छेदेबिन्दुच्छेदकारणम् । किसी अवान्तर कथा के द्वारा जब मुख्य कथा मे
बाधा उत्पन्न होती हैतब मुख्य कथा को फिर जोड़ने
वाला तथा आगे बढा़ने वाला जो उपाय किया जाताहै
वह बिन्दु है यह बिन्दु जल में तेल के समान होता है।
उदाहरण- रत्नावली नाटिका में वासवदत्ता द्वारा कामदेव की पूजा के प्रसंग से मुख्य कथा में विच्छेद होने पर पर उदयन केआगमन की सूचना दीजाती है सागरिका यह सुनकर
कहती है कि यही राजा उदयन है जिनके लिए मेरे पिता
मुझे दे रहे है। उसके ह्रदय में राजा उदयन के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है।जिससे मुुख्य कथा को गति मिलती है। पताका---सानुबन्धं पताकारव्यम् -
वह प्रासंगिक कथा जो मुख्यकथा के साथ दूर तक
चलती है।वह पताका कहलाती है जैसे रामायण में
सुग्रीव की कथा। पताका के नायक को पताका नायक
कहते है।यह सहनायक होता है जो मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति
में नायक की सहायता करता है। प्रकरी--- प्रकरी च प्रदेशभाक् ।
वह प्रासंगिक कथा जो दूर तक नही चलती है
जैसे रामायण में शबरी वृतान्त
कार्य--कार्यत्रिवर्गस्तच्छेदद्वमेकानुबन्धि च। धर्म,अर्थ,काम ये तीनो किसी भी नाटकादि के मुख्य
फल माने गए है इन तीनो में से एक,दो या तीनो फलो की प्राप्ति होना हो कार्य है। उदाहरण रत्नावली नाटिका में
रत्नावली की प्राप्ति।
इस प्रकार धनंजय ने अपने दशरूपकम् के प्रथम प्रकाश में पाँच अर्थ प्रकृतियाँ बतायी है।
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1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया प्रस्तुति सहज और सरल शब्दों में। चरैवेति चरैवेति।
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