गुरुवार, 15 नवंबर 2018

"भारवे: अर्थगौरवम्" किरातार्जुनीयम् का प्रथम सर्ग

भारवे: अर्थगौरवम्---"भारवेरर्थगौरवम्" यह उक्ति संस्कृत साहित्य रूपी जगत में महाकवि भारवि की काव्य शैली को वैशिष्टय प्रदान करती है।जिसका अर्थ है स्वल्प शब्दों द्वारा गंभीर भावों की अभिव्यक्ति                          भारवि से पूर्ववर्ती कवियों में भावपक्ष अथवा  रसनिरुपण के प्रतिअधिक रुचि थी लेकिन भारवि के युग में कविता में कला पक्ष के प्रति अभिरुचि बढ़ने लगी ।इस प्रकार स्पष्ट रूप से भारवि कला पक्ष के कवि माने जाते है वे अलंकृत काल के प्रवर्तक महाकवि  है उनका सर्वाधिक ध्यान अर्थगाम्भीर्य पर रहा है यही कारण है कि उनके सम्बन्ध में "भारवेरर्थगौरवम्"इस उक्ति को प्रसिद्धि प्राप्त हुई है।                                              मल्लिनाथ नेभारवि के वचन को" नारिकेलफलसम्मित"  तथा" रसगर्भनिर्भरसार" बताया है  जिसका तात्पर्य है कि वे बाहर से नारियल के समान कठोर और अन्दर से   मुलायम एवम् सारयुक्त है                                  किरातार्जुनीयम्  के प्रथम सर्ग की महत्त्वपूर्ण सूक्तियाँ  1.   नहि प्रियं वक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिण:---अर्थात स्वामी का कल्याण चाहने वाले सेवक कभी भी अप्रिय लगने वाली और मिथ्या बात नहीं कह सकते हैंवे सदा सत्य ही बोलेंगे चाहे वह कितना ही कटु क्यों नही हो, क्योंकि वे जानते हैं कि उनके स्वामी का हित  किस बात में निहित है।                                2.हितं मनोहारि च दुर्लभं वच:---------अर्थात संसार में ऐसे वचन दुर्लभ होते हैं जो प्राणी के लिए हितकारी भी हो और मनोहर भी लगे वस्तुत:भलाई की  बातें कड़वी  होती है तथा मन को अच्छे लगने वाले वचन क्षणिक आनंददायक  होते हैं   लेकिन एेसे मनोहारी वचन व्यक्ति का किसी भी प्रकार हित नही कर सकते है।                                           3स किसखा साधु न शास्ति यो अधिपं                अर्थात जो अपने प्रभु या स्वामी को उचित उपदेश नही देता वह किसखा अर्थात बुरा मित्र है।सच्चा मित्र अथवा स्वामी भक्त सेवक वही होता है जो बिना किसी भयके अपने मित्र या स्वामी को उचित बात बताए, भले ही वह कितनी कटु  क्यों न हो। यह एक सेवक का परम् कर्तव्य है                                              4.क्व भूपतीनां चरितम् क्व जन्तव:---अर्थात कहाँ तो राजाओं का चरित्र और कहाँ सामान्य प्राणी दोनों में महान अंतर है।राजाओ का चरित्र एक  दुरुह विषय है जो जनसामान्य की समझ से बाहर है।                                                                                                                                            5.वरं विरोध अपि समं महात्मभि:-------दुर्जनो की मित्रता की अपेक्षा सज्जनों से शत्रुता अधिक अच्छी है क्योकि इससे दुर्जन को ही लाभ होता है।सत्पुरुषों से स्पर्धा में व्यक्ति को दान दयादि गुणो का आश्रय लेना होता है  दिखावटी तौर पर ही सहीअच्छे कार्य करने पड़ते हैं जिससे उसका यश सर्वत्र फैलने लगता है जबकि दुर्जन व्यक्ति से मित्रता करने से व्यक्ति के व्यक्तित्व का पतन होने लगता है इसीलिए दुर्जन व्यक्ति की मित्रता भी हानिकारक है                                                   6.अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता----------अपने  से अधिक शक्तिशाली के साथ शत्रुता दुखदायक होता है।संसार में ही देखा गया है कि वह व्यक्ति विजयी होता है जो अपने से  कम शक्तिशाली  के  साथ युद्ध करे ।स्वयं से अधिक शक्तिशाली के साथ विरोध करने वाला सदा पराजित होता है।      7व्रजन्ति ते मूढधिय पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिन:--------------वे मूर्ख बुद्धि वाले लोग पराजय को प्राप्त करते हैं, जो  कपटी लोगों के साथ कपट व्यवहार नही करते हैं कहने का आशय है कि जो व्यक्ति जिस प्रकार का है उससे उसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए यही नीति है                      नीति शतक में भी कहा गया है" शठे शाठ्यं समाचरेत्" अर्थात दुष्ट के साथ दुष्टता ही करनी चाहिए                                                                                                                                       8विचित्ररुपा: हि खलु चित्तवृतय:---------- प्रत्येक व्यक्ति की चित्तवृतियाँ भिन्न भिन्न होती है  कहने का आशय यह है कि इस संसार में मनुष्यों के स्वभाव में भिन्नता पाई जाती है किसी व्यक्ति का  स्वभाव धीर है तो कोई अधीर                स्वभाववाला है                

कोई व्यक्ति बिना किसी कारण क्रोध करता है तो कोई व्यक्ति हर परिस्थिति में शांत रहना जानता है                                 9.शमेन सिद्धि मुनयो न भूभृत:---------------शांति के द्वारा मुनियो को ही सिद्धि प्राप्त होती है राजाओं को नहीं।भावार्थ यह है कि क्रोध का परित्याग कर  शान्ति धारण और अपने शत्रु पर आक्रमण नही करना यह राजाओं को शोभा नहीं देता। उन्हें तो अपने शत्रु का विनाश करने के लिए क्रोध करना ही पड़ता है तभी उन्हें युद्ध में सफलता प्राप्त होती है शांत चित्त होकर बैठने से कोई लाभ नहीं है।                                                        10. पराभवो अप्युत्सव एव मानिनाम्---------------     
जिनकी शक्ति और सम्पत्ति शत्रु के द्वारा नष्ट न होकर दैवीय कोप से नष्ट हुई हो, तो उनके लिए इस प्रकार की परिवर्तित दशा एक प्रकार से उत्सव के समान ही है कहने का आशय यह है कि विपत्ति तो आती जाती रहती है यह सृष्टि का चक्र है किन्तु यह जब किसी शत्रु द्वारा दी गई हो,तो वह हमे व्यथित करने वाली होती है।  दुर्योधन द्वारा दी गई विपत्ति से यहां द्रौपदी चिंतित दिखाई देती है।                                                                                                                          मुझे उम्मीद है कि आप सभी के लिए यह पोस्ट ज्ञानवर्द्धक और परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी रहेगी                                सधन्यवाद।

कोई टिप्पणी नहीं: