Shobha Srishti यह" संस्कृत विषय एवं प्रेरणासम्बंधित ब्लॉग है, Motivational and Education Category blog
रविवार, 30 दिसंबर 2018
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018
सांख्यदर्शन के अनुसार पुरूष का स्वरूप (सांख्यकारिका)
नमस्कार! स्वागत है आप सभी का Strugglealwaysshine.blogspot.com पर ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका से सम्बन्धित दो पोस्टो में सांख्यदर्शन के महत्त्वपूर्ण पच्चीस तत्वो की उत्पत्ति,"प्रकृति तत्व" की व्याख्या के बारें में जानकारी प्राप्त कर चुके होंगे अगर आप ने दोनो पोस्ट नही पढी़ है, तो कृपया पढ़ ले ताकि आप आज के Topic को Easily समझ पायेंगे। आज हम सांख्यदर्शन के महत्त्वपूर्ण तत्व" पुरुष" के स्वरूप,पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि हेतु तर्क, पुरुषकी अनेकता(बहुत्व) सिद्ध करने के तर्क के बारें में जानेंगे। पुरुषका स्वरूप- सांख्य ने द्वैतवाद में प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी सत्ता पुरुष की मानी है। सांख्य दर्शन पुरुष के सम्बन्ध में तीन मूल प्रश्नों पर विचार करता है। (1)पुरुष का स्वरूप क्या है (2)पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि हेतु तर्क (3) पुरुषों की अनेकता या बहुत्व सिद्ध करने के तर्क पुरुष का स्वरूप- सांख्य दर्शन में पुरुष का स्वरूप आत्मा से पर्याप्त साम्य रखता है। इसे प्रकृति के विपरीत बताया गया है।सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष की निम्न विशेषताएँ है--- . पुरुष शुद्ध चैतन्यस्वरूप है और सभी अवस्थाओं में चैतन्ययुक्त रहता है। यह प्रकृति के विपरीत निर्गुण स्वरूप है यह ज्ञाता और विषयी है। पुरुष नित्य तथा अपरिणामी है। पुरुष की सत्ता स्वत:सिद्ध हैऔर इसका निषेध करना असम्भव है क्योकि इसका निषेध करने वाला निषेधकर्ता स्वयं पुरुष का ही स्वरूप है। यह सत् और चेतन है किन्तु आनन्दस्वरूप नही है क्योकि सत्व गुण से आनन्द की उत्पत्ति होती हैजबकि पुरुष निर्गुण स्वरूप वाला है। पुरुष कर्ता नही भोक्ता मात्र है यह प्रकृति और उसके विकारों का उसी प्रकार भोग करता है।जैसे राजा स्वयं अन्नोत्पादन नही करते हुए भी अन्न का भोग करता है। सांख्य का पुरुष अन्य दर्शनो के आत्म स्वरूप के समान होते हुए भी कुछ दृष्टियों से भिन्न है। सांख्यदर्शन का पुरुष चावार्कीय देहात्मवाद से भिन्न अपनी नित्य सत्ता स्वीकार करता है। बौद्ध दर्शन मानता है कि आत्मा स्थायी नही है बल्कि चेतना का प्रवाह मात्र है जबकि सांख्य ने पुरुष को नित्य माना है न्याय दर्शन में चेतना को आत्मा का आंगन्तुक गुण मानते हैं जबकि सांख्य के अनुसार चेतना पुरुष का स्वभाव है। भारतीय दर्शनों में आत्मा को सच्चिदानंद तथा एक माना गया है जबकि सांख्य का पुरुष संख्या में अनेक हैं। सांख्य दर्शन में पुरुष की अनेकता सिद्धि के तर्क दिए गए हैं।जो पुरुष की संख्या में बहुत्व को सिद्ध करते हैं। भारतीय दर्शनो के विपरीत सांख्य के अनुसार पुरुष निर्गुण होने से आनंद से रहित है। इस प्रकार सांख्य दर्शन में पुरुष को आत्मा रूप में माना गया है। यह सत् चित् है लेकिन आनंद से रहित है। उसके अस्तित्व की सिद्धि हेतु तर्क**** ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में पुरुष की सत्ता सिद्ध करने हेतु पाँच तर्क दिए गए है। जो इस प्रकार है संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्ययात् अधिष्ठानात् ।पुरुषो अस्ति भोक्तृभावात् कैवल्यार्थप्रवृत्तेश्च ।। संघात परार्थत्वात् -- यह जगत प्रकृति के तीनो गुणों से निर्मित हैं और जड़, अचेतन है।यह जगत साधन रूप है प्रश्न यह उठता है कि इसका साध्य कौन है ?यदि जड़ पदार्थ को ही इसका साध्य मानें तो अनावस्था दोष पैदा होता है। इसलिए इसका साध्य वही हो सकता है जो चेतन हो तथा इस जगत को भोगने का सामर्थ्य रखता हो अतः सांख्य के पुरुष के स्वरूप के अनुसार इस प्रयोजन की पूर्ति पुरुष ही कर सकता है त्रिगुणादिविपर्ययात्--प्रकृति अपने स्वरूप में त्रिगुणात्मक तथा परिणामी है तो तार्किक दृष्टि से त्रिगुण निर्गुण की ओर संकेत करता है परिणामी अपरिणामी की ओर।यह निर्गुण तथा अपरिणामी तत्व पुरुष है।यह पुरुष की सत्ता सिद्धि का एक प्रमाण यह है। अधिष्ठानात्-- प्रकृति ज्ञेय,विषय तथा जड़ है।जबकि पुरुष अधिष्ठान, ज्ञाता, विषयी तथा चेतन है। भोक्तृभावात्--प्रकृति और उससे उत्पन्न पदार्थ जड़ होने के कारण भोग्य है अतःअतः इसे भोगने के लिए भोक्ता होना चाहिए।और यह भोक्ता वही हो सकता है जो चेतना से युक्त हो। चेैतन्य होने के कारण पुरुष इस प्रकृति का भोक्ता है अत:भोक्तृभाव होने से पुरुष का अस्तित्व सिद्ध होता है। कैवल्यार्थप्रवृत्तेश्च-- प्रकृति का साध्य कैवल्य है अब यह प्रश्न उठता है कि कैवल्य की प्राप्ति किससे होगी । पुरुष की सत्ता का वास्तविक बोध होने पर ही प्राणी कैवल्य अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर सकते है। उपर्युुक्त पाँच कारण पुरुष के अस्तित्व को सिद्ध करते है। पुरुषो की अनेकता सिद्धि के तर्क ** सांख्य दर्शन पुरुष या आत्मा की अनेकता सिद्ध करने के लिए तीन तर्क प्रस्तुत करता है जो इस प्रकार है जननमरणकरणानाम् प्रतिनियमात् अयुग्पत्प्रवृत्तेश्च । पुरुष बहुत्वं सिद्धम् त्रैगुण्यविपर्ययात् चैव ।। जननमरणकरणानाम् प्रतिनियमात् -- इस जगत में व्यक्ति का जन्म, मृत्यु और अनुभव भिन्न भिन्न होते है। यदि पुरुष एक ही होता तो प्रत्येक व्यक्ति का जन्म और मृत्यु एक ही समय होते अर्थात् एक व्यक्ति के जन्म से सभी जीवित हो जाते और एक ही की मृत्यु से सभी मर जाते।परन्तु जगत में ऎसा नही देखा जाता है अत: सांख्यदर्शन में पुरुष की बहुत्व सत्ता की सिद्धि इस तर्क द्वारा भी की जाती है। अयुग्प्रवृत्तेश्च- - इस तर्क के अनुसार सभी व्यक्तियों की प्रवृत्ति के परस्पर भिन्न होने का कारण सभी में भिन्न भिन्ऩ पुरुष का होना है। यदि ऎसा नही होता तो एक के हँसने पर सभी हँसते एक के रोने पर सभी रोते त्रैगुण्यविपर्ययात्-- इस तर्क के अनुसार तीनो गुणो की आनुपातिक विभिन्नता पुरुषों की अनेकता सिद्ध करती है। तीनो गुणो की आनुपात में भिन्नता के कारण देवता,राक्षस,मानव योनियाँ पाई जाती है जिसमें सत्व की प्रधानता है वह देवता,जिसमें रजो गुण की प्रधानता वह मनुष्य, जो तमोगुण प्रधान है वह राक्षस योनि का माना जाता है अत:तीनो गुणो की आनुपातिक भिन्नता के कारण मनुष्यो में विभेद पाया जाता है अत: इस विभेद से पुरुषों की अनेकता सिद्ध होती है। Thanks for visiting this blog
रविवार, 23 दिसंबर 2018
वैदिक साहित्य प्रश्नोत्तरी (संस्कृत साहित्य)
वेदा: कति सन्ति ? ------चत्वार:
महर्षि :वेदव्यास:वेदस्य विभाजनं कतिधा कृतवान्?---त्रिधा
चतुर्षु वेदेषु कस्य वेदस्य द्विधा विभाजनं कृतमस्ति? --
यजुर्वेद:
गेयात्मक:वेद: क: अस्ति?---
सामवेद:
क:वेद: गद्य-पद्यात्मक: मन्यते? ------
कृष्ण यजुर्वेद:
वेदत्रय्याम् को वेद: न मन्यते? ----
अथर्ववेद:
माध्यन्दिनी शाखा कस्य वेदस्य वर्तते? ----
शुक्ल यजुर्वेदस्य
माध्यन्दिनीशाखाया:अपरं नाम : का:?-----
वाजसनेयी शाखा:
अथर्ववेदस्य कति शाखा:मन्यते?----
-नव
गोपथब्राह्मणं केन वेदेन सम्बद्धमस्ति? ----
अथर्ववेदेन
शतपथब्राह्मणम् कस्य वेदस्य वर्तते?----
शुक्लयजुर्वेदस्य
बृहदारण्यकं केन वेदेन सम्बद्धमस्ति?----
शुक्लयजुर्वेदेन
कस्य वेदस्य आरण्यकं नास्ति?---
अथर्ववेदस्य
शंकराचार्यानुसारं कति उपनिषद: मता:?--
दश
शुक्लयजुर्वेदे कति अध्याया:सन्ति?----
चत्वारिंशद्
भगवता पतञ्जलिना
यजुर्वेदस्य कति शाखा: मता:? ----
एकशतम्
पतञ्जलिना अथर्ववेदस्य कति शाखा मता:?-----
नवशाखा:
पतञ्जलिना सामर्वेदस्य कति शाखा मता: ? ----
एकसहस्त्रम्
सामवेदे कति मंत्रा: विद्यन्ते ?----
1875
अथर्ववेद कति मंत्रा विद्यन्ते ?-----
5987
पूर्वाचिकोत्तरार्चिक रूपेण कस्य वेदस्य द्विधा विभाजनं ज्ञायते ?-----
अथर्ववेदस्य
कस्य वेदस्य अपरं नाम ब्रह्मवेद: वर्तते ?-----
अथर्ववेदस्य
यजुर्वेदेन सम्बद्ध देव: को वर्तते?----
वायु:
सामवेदेन सम्बद्ध देव :को वर्तते ?---
सूर्य: (रवि:)
वैदिक साहित्य प्रश्नोत्तरी( संस्कृत साहित्य) |
अथर्ववेदे
गुरुवार, 20 दिसंबर 2018
प्रकृति के अस्तित्व के तर्क, सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टिक्रम (सांख्यकारिका)
नमस्कार आप सभी का स्वागत है Strugglealwaysshine.blogspot.com पर जहाँ आप सभी के लिए संस्कृत साहित्य से सम्बन्धित Topics पर ज्ञान साझा करने प्रयास किया जा रहा है।जो ज्ञानवर्धक होने के साथ साथ विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। पिछली पोस्ट में हमने ईश्वर कृष्ण द्वारा रचित सांख्यकारिका में बताये पच्चीस तत्वों के बारे में सामान्य रूप से जानकारी प्राप्त की ईश्वर कृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका में महत्वपूर्ण पच्चीस तत्वों का अन्तर्भाव केवल चार तत्त्वों में किया है। है1.प्रकृति(अविकृति) 2.विकृति 3. प्रकृति और विकृति 4. न प्रकृति न विकृति पिछली पोस्ट में हमने सांख्य दर्शन के एक महत्वपूर्ण तत्व प्रकृति के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त की जैसे प्रकृति का ज्ञान हमें कैसे होता है प्रकृति का स्वरूप क्या है प्रकृति के कितने गुण हैं प्रकृति की कितनी अवस्थाएँ है। आज हम इससे आगे की चर्चा प्रारंभ करते हैं प्रकृति के अस्तित्व के तर्क *-सांख्य दर्शन ने प्रकृति के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए पांच तर्क प्रस्तुत किये हैं जिसे ईश्वरकृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका में इस प्रकार संकलित किया है। भेदानां परिमाणात्
समन्वयात् शक्तित: प्रवृतेश्च । कारणकार्यविभागात् अविभागात् वैश्वरुपस्य ।। 1. भेदानां परिमाणात् - -जगत के संपूर्ण पदार्थ परिमित अर्थात् सीमित है।परिमित पदार्थ का आधार परिमित को नहीं माना जा सकता क्योंकि इसे अनवस्था दोष उपस्थित होता है।यह अपरिमित आधार प्रकृति ही है। 2.समन्वयात् --प्रकृति के सभी पदार्थ सत्व,रजस और तमस् गुणो से निर्मित है केवल प्रकृति ही इन तीनो गुणो को समन्वय करने की क्षमता रखती है पुरुष ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह निर्गुण है। 3.शक्तित:प्रवृत्तेश्च-- कोई भी कार्य तभी उत्पन्न होता है जब उसके लिए समर्थ कारण विद्यमान हो। जगत में दो प्रकार के पदार्थ है स्थूल पदार्थ और सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ । इस जगत का समर्थ कारण वही हो सकता है जो इन दोनों पदार्थों को धारण कर सके। यह कारण महाभूत नहीं हो सकते क्योंकि वह सूक्ष्म पदार्थों को धारण नहीं कर सकते ।यह कारण पुरुष भी नहीं हो सकता क्योंकि शुद्ध चेतन्य स्वरूप होने के कारण वह जड़ पदार्थों को धारण नहीं कर सकता। अत:जगत का समर्थ कारण प्रकृति ही हैं। 4. कार्यकारणविभागात् --सत्कार्यवाद के अनुसार कारण की व्यक्त अवस्था को कार्य कहते है व्यक्त कार्य अव्यक्त अवस्था में कारण रूप में विद्यमान रहता है यह जगत एक कार्य है जो अपनी अव्यक्त अवस्था में कारण रूप में प्रकृति में ही विद्यमान रहता है। 5.अविभागात् वैश्वरुपस्य *-सत्कार्यवाद के अनुसार कार्य तिरोभूत होकर पुन: कारण में ही लीन हो जाता है जैसे सोने की अँगूठी गलकर पुन:सोना बन जाती है उसी प्रकार जगत प्रलयावस्था में पुन: प्रकृति में ही विलीन हो जाता है। " सृष्टिक्रम " ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में सृष्टिक्रम को निम्नलिखित पद्य में प्रस्तुत किया है। प्रकृतेर्महांस्ततो अहंकारतस्माद् गणश्च षोड़शक: । तस्मादपि षोड़शकात्पञ्चभ्य:पञ्च भूतानि ।। सांख्यकारिका के उक्त पद्य में जगत के विकासक्रम को स्पष्ट रूप में बताया गया है। पद्य के अनुसार जगत का विकास प्रकृति से होता है प्रकृति सतत परिणामी है जिसका साम्यावस्था में सरूप परिणाम होता हैअर्थात सत्व गुण की क्रिया प्रतिक्रिया सत्व गुण से, रजस की रजस गुण से तथा तमस की तमस से होती हैं यह साम्य व्यवस्था तब भंग होती है जब पुरुष के संयोग से प्रकृति में गुण क्षोभ पैदा होता है और विरूप परिणाम आरम्भ होता है इस अवस्था में तीनों गुण एक दूसरे से क्रिया प्रतिक्रिया करते हैं और गुणो के संयोजन से ही जगत का विकास होता है। यह वैषम्यावस्था कहलाती है। प्रकृति में विरूप परिणाम आरंभ होने के बाद सर्वप्रथम जो विकार उत्पन्न होता है वह महत् (बुद्धि) है इस महत् (बुद्धि) से अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार के तीन भेद हैं सात्विक अहंकार,राजसिक अहंकार और तामसिक अहंकार । राजसिक अहंकार सबसे पहले सक्रिय होता है वह दोनों को गति प्रदान करता है। सात्विक के अहंकार से एकादश इंद्रियों का विकास होता है पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और एक उभयात्मक इन्द्रिय मन है। और तामसिक अहंकार से पञ्चतन्मात्राए उत्पन्न होती है। ये शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध है ।ये पांच तन्मात्राए अति सूक्ष्म होती है इन पंचतन्मात्राओं से स्थूल पंच महाभूतों का विकास होता है ।शब्द तन्मात्रा से आकाश ,स्पर्श तन्मात्रा से वायु, रूप तन्मात्रा से अग्नि ,रस तन्मात्रा से जल और गंधतन्मात्रा से पृथ्वी इन पंचमहाभूतों का विकास होता है। पंच महाभूतों से ही जगत के सभी स्थूल पदार्थों का विकास संघात रूप में होता है। इस प्रकार इस सृष्टिक्रम से स्पष्ट होता है कि जगत रूपी कार्य प्रकृति रूपी कारण से ही उत्पन्न होता है।अव्यक्त जगत प्रकृति के विरूप परिणाम के कारण ही व्यक्त रूप धारण करता है। तथा प्रलय अवस्था में पुनः यह जगत प्रकृति में ही विलीन हो जाता है ।
मंगलवार, 18 दिसंबर 2018
सांख्यकारिका , सांख्यदर्शन के 25 तत्त्व
सांख्यकारिका --"सांख्यदर्शन "में 25तत्त्वों को स्वीकार किया गया है।"सांख्यदर्शन" के अध्ययन का उद्देश्य इन 25तत्वों के ज्ञान से आध्यात्मिक,आधिभौतिक,आदिदैविक तीनो प्रकार के दु:खो से मुक्ति प्राप्त करना है जैसै कि ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में कहा है
दु:खत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा हैतो तदभिघातके तदभिघातके। दृष्टे सापार्था चेन्नेकान्तात्यन्ततो अभावात् ।। सांख्यदर्शन में इन25 तत्वों का अन्तर्भाव ईश्वरकृष्ण ने चार पदार्थों में ही किया है जो प्रस्तुत पद्य में बताया गया है मूलप्रकृतिविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतय:सप्त। षोडशकस्तु विकारो नप्रकृतिर्न विकृति:पुरुष:।। &nbs; 1प्रकृति-------------जो पदार्थ अन्य पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है किसी का कार्यरूप नही है अर्थात जो पदार्थों की
उत्पत्ति के मूल में है स्वयं किसी पदार्थ से उत्पन्न नही है। जैसे मूलप्रकृति 2. विकृति--जो तत्व किसी का केवल कार्यरूप है किसी का कारण नही है 16तत्वो का समूह विकृति है जिसमे पाँच ज्ञानेन्द्रिय,पाँच कर्मेन्द्रिय,मन और पञ्च महाभूत शामिल है। 3.प्रकृति और विकृति--कुछ तत्व कारणरूप और कार्यरूप है इसके अन्तर्गत 7तत्व सम्मिलित है महत्,अहंकार, 5तन्मात्राए(शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गंध) 4.न प्रकृति न विकृति- जो न कारण है न कार्य है। जैसे पुरुष प्रकृति का स्वरूप*-सांख्य दर्शन में प्रकृति के सम्बन्ध में प्रकृति के ज्ञान, प्रकृति का स्वरूप,प्रकृति की अवस्थाएँ तथा प्रकृति के अस्तित्व के प्रमाण का विश्लेषण किया गया है। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति का ज्ञान अनुमान के माध्यम से होता है जब हम विश्व के मूल कारण की खोज करते है विश्व में दो प्रकार की वस्तुएँ है स्थूल पदार्थ,सूक्ष्म पदार्थ मिट्टी पानी पवन स्थूल पदार्थ कहे जाते है जबकि इन्द्रिय मन अहंकार आदि सूक्ष्म पदार्थ है अत:विश्व का मूल कारण वही हो सकता है जो दोनो प्रकार के पदार्थो को धारण करने का सामर्थ्य रखता हो अब प्रश्न यह उठता है कि वह तत्व कौनसा है ? क्या वह कारण महाभूत है ?यह कारण महाभूत नही हो सकते है क्योकि महाभूतो से सूक्ष्म पदार्थ उत्पन्न नही हो सकते है क्या वह कारण पुरुष है?नही वह कारण पुरुष भी नही हैक्योंकि पुरुष शुद्ध चैतन्य स्वरूप है जबकि विश्व में मिट्टी आदि स्थूल पदार्थ भी है इसलिए विश्व का मूल कारण पुरुष भी नहीं है।सांख्य के अनुसार प्रकृति ही वह कारण जो स्थूल और सूक्ष्म दोनो प्रकार के पदार्थो का आधार बनने में सक्षम है।जिसका काज्ञान अनुमान के माध्यम से होता है। सांख्य के अनुसार प्रकृति को कई नामों से जाना जाता है अव्यक्त अर्थात विश्व रूपी कार्य की अव्यक्त अवस्था, प्रधान अर्थात् विश्व का मूल कारण ,अजा अर्थात नित्य और शाश्वत,अनुमानगम्य ,प्रसवधर्मिणी अर्थात् परिणाम को जन्म देने वाली सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति के तीन गुण हैं सत्व,रजस, तमस ये तीनो गुण पृथक पृथक होते हुए भी मिलकर कार्य करते है।जैसे दीपक में तेल, बत्ती, ज्वाला परस्पर भिन्न होकर भी मिलकर प्रकाश उत्पन्न करने का कार्य करते है। सांख्यकारिका में प्रकृति के गुणो के सम्बन्ध में कहा गया है- सत्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं चलञ्च रज: । गुरु वरणकमेव तम,प्रदीपवच्चार्थतो वृति:।। उपर्युक्त पद्य के अनुसार सत्व गुण शुद्धता का प्रतीक है जिससे आनन्द और ज्ञान की प्राप्ति होती है यह गुण हल्का,श्वेत वर्ण का है ।रजस गुण अशुद्धि का प्रतीक हैं क्रोध,द्वेष,विषाद जैसी दु:खात्मक प्रवृत्तियो की उत्पत्ति का कारण है।रक्त वर्ण का है।तमस गुण अन्धकार तथा अज्ञान का प्रतीक है। मोह ,प्रमाद ,आलस्य और मूर्च्छा आदि पैदा करने वाला है।भारी होने के कारण यह अधोगामी है उसका रंग काला माना गया है प्रकृति की दो अवस्थाएँ मानी गई है 1साम्यावस्था 2 वैषम्यास्था संस्कृत विषय से संबंधी Topics आप अपने Blog sanskrit jeeva पर प्राप्त कर सकते है
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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018
उत्तररामचरितम् की प्रमुख सूक्तियाँ ,प्रथमांक
उत्तररामचरितम् की प्रमुख सूक्तियाँ---उत्तररामचरितम् भवभूति की अंतिम व सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है इसमे भवभूति ने करुणरस की जो सरिता बहायी है एक ओर वह सभी रसिक जनो के ह्रदय को विदीर्ण करती है दूसरी ओर उनके आँखो से निकलने वाले आँसू उनके अन्त:करण को पावन कर देते है।
क्षेमेन्द्र ने सुवृत्ततिलक में भवभूति के शिखरिणी की प्रशंसा में उसे निर्रगलतरंगिनी कहा है
प्रथम अंक की प्रमुख सूक्तियाँ
अपिग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य ह्रदयम्। चित्रवीथी प्रसंग में लक्ष्मण राम एवं सीता से वनवास की स्मृतियो को स्मरण करते हुए कहते है कि जनस्थान (दण्कारण्य)मेंआपके चरितो से पत्थर भी रो पड़े थे और वज्र का भी ह्रदय फट गया था
एते हि ह्रदयमर्मच्छिद: संसारभावा:
प्रस्तुत कथन में राम सीता से कहते है कि ये सांसारिक भाव ह्रदय के मर्मस्थल को भेदने करने वाले है।
इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवर्तिर्नयनयो:। प्रस्तुत पंक्ति में राम सीता की प्रशंसा करते है कि यह सीता घर में लक्ष्मी है,यह नेत्रों के लिए अमृत की शलाका है । दुर्जन: असुखमुत्पादयति दुर्जन दु:ख उत्पन्न करता है। यह कथन सीता का है राम लक्ष्मण के समक्ष। तीर्थोदकं च वहिश्च नान्यत:शुद्धिर्महत:। राम सीता के परिपेक्ष्य में कहते हैं कि तीर्थ जल और अग्नि ये अन्य पदार्थों से शुद्धि के योग्य नहीं है।अर्थात् इनकी पवित्रता के संबंध में संदेह करना भी पाप के समान है
नैसर्गिकी सुरभिण:कुसुमस्य सिद्धा मूर्ध्नि स्थितिर्न चरणैरवताडनानि।। श्रीराम सीता को लक्ष्य कर लक्ष्मण से कहते हैं कि सुगंधित पूर्ण का सिर पर रखा जाना स्वाभाविक सिद्ध है न कि पैरों से कुचला जाना।
सत्तां केनापि कार्येण लोकस्याराधनं व्रतम् जब दुर्मुख नामक गुप्तचर श्रीराम को सीता के संबंध में फैले लोकापवाद को कहता है तो श्री राम सीता को त्यागने का निर्णय लेते हैं वे कहते हैं चाहे जो भी हो जनता को प्रसन्न रखना ही राजा का परम कर्तव्य हैं। सन्तापकारिणो बन्धुजनविप्रयोगा भवन्ति । सीता राम लक्ष्मण के सम्मुख कहती हैं कि बंधुजनों का वियोग बहुत दुखदायी होता है। ते हि नो दिवसा गता:। श्रीराम लक्ष्मण और सीता से कहते हैं कि हमारे पुराने दिन बीत गये है।
विशेष-यह अंक संस्कृत की सभी प्रतियोगी परीक्षाओ की
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है इसका अध्ययन सभी विद्यार्थियो के
लिए आवश्यक है।
मंगलवार, 11 दिसंबर 2018
शिवराजविजयम्-एेतिहासिक उपन्यास (अम्बिकादत्त व्यास)
पंडित अम्बिका दत्त व्यास जी का जन्म हुआ था जयपुर में घटिकाशतक किस कवि की उपाधि है? अम्बिका दत्त व्यास की काशी की महासभा ने व्यास जी को किस उपाधि सेविभूषित किया भारतरत्न शिवराजविजयम् का कथानक है ? एेतिहासिक महाराष्ट्र शिरोमणि शिवाजी की जीवनी पर आधारित एेतिहासिक उपन्यास है? शिवराज विजयम् शिवराजविजयम् उपन्यास में प्रधान रस है? वीररस विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध का यह श्लोक मंगलाचारण के रूप में उल्लेखित है?----शिवराजविजयम् बीजापुर का नवाब है?---शाइस्ता खाँ कन्या के अपहरण कर्ता नवयुवक को किसने मारा? गौरसिंह ने अफजल खान के तीनों अश्वों को मारकर पांच ब्राह्मण पुत्रों को मारकर छुडाने वाला वीर है? गौरसिंह विजयतां शिववीर:सिद्धयन्तु भवतां मनोरथा: यह किसने कहा?----योगिराज ने "कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्" इस प्रकार की महान प्रतिज्ञा किसने की ? शिवाजी ने सत्यं न लक्षितो मया समयवेग: यह कथन किसका है? योगिराज का विक्रमराज्ये अपि कथमेष पातकमयो दुराचाराणामुपद्रव: यह कथन किसका है? योगिराज का "अद्य न तानि स्त्रोतांसि नदीनाम्,न सा संस्था नगराणाम्, न सा आकृतिर्गिरीणाम्" यह कथन किसका है? ब्रह्मचारीगुरु का योगिराज ने दूसरी बार समाधि कब लगायी थी ? ---- राजा विक्रमादित्य के समय में विक्रमादित्य को भारत भूमि छोडकर गए हुए कितना समय बीत गया? 1700वर्ष सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त किसने किया? महमूद गजनवी ने योगीराज विक्रमादित्य के बाद जब समाधि से जागे उस समय दिल्ली का शासक था ? औरंगजेब योगिराज के समाधि से जागने के समय शिवाजी निवास कर रहे थे? सिंह दुर्ग में सोमनाथ मंदिर स्थित है?---गुजरात में जंगल में अकस्मात भालू के आ जाने से नवयुवक कन्या को छोड़कर किस वृक्ष पर चढ़ गया? शाल्मली वृक्ष पर "अलम् भो अलम् !मयैव पूर्वमवचितानि कुसुमानि त्वं तु चिरं रात्रावजागरीरिति क्षिप्रं नोत्थापित:"यह कथन किसका है? श्यामबटु का मुने!विलक्षण अयम् भगवान सकलकलाकलापकलन:सकलकालन: कराल काल:यह कथन किसका है ? योगिराज का " धिगस्मान् ये अद्यापि जीवाम: श्वसिम:विचराम: आत्मन आर्यवंश्यांश्च अभिमन्यामहे"यह कथन किसका है ? ब्रह्मचारी गुरु का अहो चिररात्राय सुप्त अहम् स्वप्नजालपरतन्त्रेणैव महान् पुण्यमय:समय अतिवाहित: यह कथन किसका है? गौर बटु का शिवराजविजयम् नामक उपन्यास का प्रारम्भ किस वर्णन से होता है-----सूर्य के वर्णन से विशेष----"शिवराज विजयम्" नामक एतिहासिक उपन्यास 1870ई.में लिखा गया ,जो काशी से 1901 ई. में प्रकाशित हुआ। शिवराज विजय की सम्पूर्ण कथा तीन विराम,12 नि:श्वासों में विभक्त है। यह संस्कृत भाषा का प्रथम ऐतिहासिक उपन्यास है। "शिवराजविजयम्" में पांचाली रीति का प्रयोग हुआ है।
सोमवार, 3 दिसंबर 2018
किरातार्जुनीयम् महाकाव्य से संबन्धित प्रमुख शब्दार्थ
संस्कृत शब्द और उनके अर्थ- श्रिय:- लक्ष्मी मही- पृथ्वी महीभुज्- राजा वर्णिलिड्गी- ब्रह्मचारी रहसि-एकान्त में निरत्यय-बाधा रहित, भूभृत-राजा औदार्यम्- उदारता साम-मधुर वचन मन्युना-क्रोध से अमात्य-मन्त्री क्रियापवर्गेषु- कार्य समाप्त होने पर अधिष:-राजा परेतरान्-शत्रुओ से इतर (मित्र) सज्यम्-डोरी, आवारिधि-समुद्रपर्यन्त भिय:-विपत्तियाँ वासव-इन्द्र वासवोपम:- अर्जुन आखण्डलसूनु:- अर्जुन विष्वक-सब और से कचाचितौ-बालो से व्याप्त विधेयम्-योग्य परप्रणीतानि-दूसरो के द्वारा कही गई प्रसभम्-बलपूर्वक अपाकृती-अपमान विनियन्तुम्-सहन करने योग्य अदभ्रदर्भाम्-कुशों से व्याप्त शिवारुतै:-श्रृंगालियों की ध्वनि प्रमदा-नारी, अधिक्षेप:-अपमान स्त्रक-माला निशित-तीक्ष्ण इषु:-बाण कुलजाम्-कुल परम्परा से प्राप्त अमर्षशून्य- क्रोधरहित द्विषनिमित्ता- शत्रुओ के कारण सन्धेहि-धारण करना निस्पृहा-जिसकी ईर्ष्या निकल गई (निष्काम) दूरसंस्थे-दूर स्थित होने पर प्रत्यासन्ने-निकट आने पर पुर:सरा:-अग्रणी निकारम्-अपमान क्षामम्-शान्ति दयिता-पत्नी जीमूतेन-बादल कार्मुकम्-धनुष लक्ष्मीपतिलक्ष्म-राजचिन्ह से युक्त व्याजहार-बोलना भूरिधाम्न: परमपराक्रमी क्षितीक्षा:-राजा लोग सोपधि-छलपूर्वक संधिदूषणानि-किये गये समझौते को भंग कर देना पटुकरणै:-समर्थ इन्द्रियो वाले गुह्यक:-यक्ष कृषीवलै-किसानो के द्वारा अकृष्टपच्या-बिना परिश्रम के फसल का पकना अदेवमातृका;-वर्षा जल के सहारे नहीं रहना सन्निपात-मिश्रण, समयपरिरक्षणम्- प्रतिज्ञा का पालन करना, द्विजातिशेषेण-ब्राह्मणों के भोजन करने से बचा हो।
रविवार, 2 दिसंबर 2018
संस्कृत नाट्य साहित्य में कालीदास का स्थान**
संस्कृत नाट्य साहित्य में कालीदास का स्थान** कालीदास न केवल एक काव्यकार रूप में अपना वैशिष्टय रखते है अपितु गीतकाव्यकार एवं नाटककार के रूप में भी उनका वही स्थान है।पुरातन कवियों की गणना प्रसंग में काली दास को कनिष्ठिका अधिष्ठित करने का श्रेय उनकी काव्यत्रयी को ही नहीं, अपितु उनकी नाटक त्रयी को भी जाता है
।अभिज्ञान शाकुंतलम का सर्वप्रथम अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले विलियम जॉन्स ने" दी लास्ट थिंग" की भूमिका में कालिदास को भारत का शेक्सपियर घोषित किया है तथा उनकी शकुंतला की भूरि भूरि प्रशंसा की
नाटककार के रूप में मूल्यांकन करने के लिए कालीदास विरचित नाटकों को आधार मान सकते है
मालविकाग्निमित्रम् विक्रमोर्वशीयम् अभिज्ञानशाकुन्तलम् मालविकाग्निमित्रम्*-यह कालीदास विरचित प्रथम नाट्यकृति है।इसमें शुंग वंशीय नृप अग्निमित्र तथा रानी की परिचारिका मालविका का प्रेम वर्णित किया गया है ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में स्वच्छंद प्रेम का विकास प्रदर्शित किया गया है।यह पांच अंक का नाटक है प्रथम कृति होने से इस नाटक में कालिदास का काव्य कौशल प्रौढतम रूप में उपलब्ध नही होता है।फिर भी नाटक में राजा के अंत: पुर में बढते काम, रानियो कीपरस्पर ईर्ष्या,राजा की कामुकता, राजमहिषी धारिणी की धीरता का बडा ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है। विक्रमोर्वशीयम्*-यह पांच अंकों का एक त्रोटक है जिसमें राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है इसकी कथा 10/95 तथा शतपथ ब्राह्मण से ली गई है महाकवि कालिदास ने नाटक को मानवीय प्रेम की अत्यंत मधुर एवं सुकुमार कहानी में परिणत कर दिया है महाकविने अपनी कोमलकांत पदावली से तथा शैली की मौलिकता से इसे नवीन रूप में प्रस्तुत किया है।भरत मुनि का श्राप, कार्तिकेय के द्वारा दिया गया नियम, उर्वशी का लता रूप में परिवर्तन,पुरुरवा का उन्माद रूप में प्रलाप आदि प्रसंग कवि की नव नवोन्मेष शालिनी नाट्य प्रतिभा का ही प्रतिफल है।प्राकृतिक दृश्य बड़े रमणीय है भाषा प्रसादयुक्त एवं स्वाभाविक अलंकारोसे अलंकृत है।इस नाटक में महाकवि ने श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का सुन्दर चित्रण किया है जो पाठकों को जोड़े रखता है। डॉक्टर रमाशंकर तिवारी के अनुसार कालीदास ने प्रस्तुत नाटक में एक तप्त लोहे को दूसरे तप्त लोहे से जोड़ दिया है।यदि इस नाटक की तुलना अभिज्ञान शाकुंतलम से की जाए तो यह उसके नाटकीय विधान की दृष्टि से कमजोर है इसकी स्वाभाविकता भी थोड़ी कम नजर आती है अभिज्ञानशाकुन्तलम्*-यह कालिदास विरचित अंतिम नाटक है जिसका कथानक महाभारत के आदिपर्व के शकुन्तलोपाख्यान से लिया गया है वहाँ यह कथा रसहीन है किन्तु कालिदास ने अपनी अद्भुत कल्पना, नाटकीय विधान से इसे न केवल संस्कृत साहित्य अपितु विश्व साहित्य का सतत देदीप्यमान सूर्य बना दिया है महाकवि ने अपनी वर्णन शक्ति से उसमे पर्याप्त परिवर्तन कर उनमे आवश्यकतानुसार नवीन प्रसंगो की उद्भावना की है। कालीदास ने प्रथम अंक में शकुन्तला के सौन्दर्य के लिए नवीन उपमाए की है
इदंकिलाव्याज मनोहर वपु: स्तप:क्षमं साधयितुं य इच्छति
ध्रुव:स:नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छेत्तुमृर्षिव्यवस्यति ।।
प्रस्तुत पद्य में दुष्यन्त शकुन्तला के कोमल शरीर की तुलना नीलकमल के पत्ते से करता है चतुर्थ अंक में कण्व द्वारा शकुन्तला को दिये गये शिक्षाप्रद उपदेश वर्तमान में भी प्रासंगिक है कण्व शकुन्तला से कहते है-------------
शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्ति सपत्नीजने भर्तुविप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गम:
इसी अंक में शकुन्तला की विदाई के अवसर कण्व की मर्मानुभूति को व्यक्त किया गया है शकुन्तला की विदाई के संदर्भ में कण्व ह्रदय के उद्गारो को व्यक्त करते हुए कहते है आज शकुंतला पति गृह जाएगी। ऐसा विचार कर हृदय दुख से भर रहा है, गला अश्रु प्रवाह को रोकने के कारण रुंध गया है । चतुर्थ अंक के चार श्लोक संस्कृत साहित्य में अपनी पहचान रखते हैं
पंचम अंक में महाकवि ने परिवर्तन किया है मूल कथा में राजा विवाह की संपूर्ण बातें स्मरण होते हुए भी शकुंतला को स्वीकार नहीं करता है जब आकाशवाणी शकुंतला का समर्थन करती है तब वह उसे स्वीकार करता है। जबकि कालीदास के अभिज्ञान शाकुंतलम में राजा दुर्वासा के शाप के प्रभाव के कारण शकुंतला को नहीं पहचानता है । षष्ठ और सप्तम अंक दोनों कालिदास की मौलिक रचना है मूल कथा में इनसे संबंधित कोई अंश नहीं है। सचमुच में आधुनिक काल में संस्कृत के पुनर्जीवन का तथा पाश्चात्य देशों में संस्कृत साहित्य के गंभीर अध्ययन के सूत्रपात का श्रेय कालीदास और उनकी अमर कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम् को है। सर विलियम जोन्स द्वारा अंग्रेजी में अनुदित "अभिज्ञान शाकुंतलम "जब यूरोप में पहुँचा तो उसे देखकर यूरोप का शिक्षित समाज आश्चर्य चकित रह गया शीघ्र ही यूरोप की सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया सन्1791 में जार्ज फोस्टर द्वारा जर्मन भाषा में किए गए शकुंतला के अनुवाद को देखकर जर्मन कवि गेटे इतना गदगद हुआ कि उसने इसकी प्रशंसा में एक कविता रच डाली
वासन्तं कुसुमं फलं च युगपद ग्रीष्मस्य सर्व च यद्---------शाकुन्तलम् सेव्यताम्
यदि तुम वसन्त के फूल तथा शीत के फल चाहते हो और आत्मा को मोहित करने वाला ,प्रसन्न करने वाला एवं उसी तरह से पुष्ट करने वाला रसायन तथा पृथिवी एवं स्वर्ग का सम्मिलन ये सभी बातें एक जगह देखना चाहते हो तो शाकुंतला का अध्ययन करें और वहां ये सभी तत्व तुम्हें मिल जाएंगे । सभी समालोचको ने इस नाटक को सर्वश्रेष्ठ मानकर एक स्वर से प्रमाणित किया है -
काव्येषु नाटकं रम्य तत्र रम्या शकुन्तला "
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