संस्कृत भाषा शिक्षण की विधियां नमस्कार दोस्तों, पिछली पोस्ट में हमने जाना कि संस्कृत भाषा शिक्षण की तीन विधियाँ है- प्राचीन विधि, नवीन विधि और नवीनतम विधि
संस्कृत शिक्षण की प्राचीन विधियों में कुछ विधियाँ जैसे मौखिक एवं व्यक्तिगत शिक्षण विधि, पारायण विधि, वाद विवाद विधि, प्रश्नोत्तर विधि और सूत्र विधि,व्याकरण विधि,व्याख्या विधि, भाषण विधि,कक्षानायक विधि,कथा कथन विधि ये सभी सम्मिलितरूप से पाठशाला विधि कहलाती है।पिछली पोस्ट में हमने प्राचीन विधियों के अन्तर्गत आने वाली कुछ शिक्षण विधियों का अध्ययन कर लिया था। शेष विधियों का अध्ययन इस पोस्ट में करने जा रहे है।
संस्कृत भाषा शिक्षण प्राचीन विधियाँ
व्याकरण विधि *व्याकरण *भाषा का प्राण तत्व है इसलिए किसी भाषा को पढ़ाने के लिए व्याकरण का ज्ञान दिया जाना आवश्यक है। प्राचीन समय में वेद अध्ययन के लिए व्याकरण का पठन-पाठन विशेष रूप से किया जाता था पतंजलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है "रक्षार्थ वेदानाम् अध्येययम् व्याकरणम् " वेदो की रक्षा के लिए व्याकरण पढ़ना चाहिए। व्याकरण विधि में प्रारम्भ में कौमुदी के सूत्र, अमरकोश के श्लोक शब्द रूप, धातुरूप कण्थस्थ करवाकर उनकी व्याख्या औरउपयोग बताया जाता था।
व्याख्या विधि छात्रों में शंका समाधान के लिए शिक्षक इस विधि का अनुसरण करते थे ।
इस विधि के छह अंग है।
1.पदच्छेद
2संशय
3 पदार्थोक्ति
4 वाक्ययोजना
5 आषेप
6समाधान
इन सभी पदो का अनुसरण करते हुए विषय की विस्तृत जानकारी दी जाती थी और भाषा पर अधिकार होता था।
भाषण विधि अष्टाध्यायीमें प्रयुक्त भाषण शब्दों से भाषण विधि का आभास होता है विषय को स्पष्ट करने के लिए गुरु उदाहरणो एवं कथा आदि का सहारा लेते थे तथा लंबे-लंबे व्याख्यान व भाषण देते थे।इससे छात्रों को किसी विषय पर स्पष्ट तथा विस्तृत जानकारी प्राप्त हो जाती थी।
कथानायक विधि गुरु के स्वस्थ होने अथवाकिसी आवश्यक कार्य से बाहर जाने की स्थिति में मेधावी छात्र गुरुकुल के अन्य छात्रों को पढ़ाते थे या किसी विषय की पुनरावृत्ति करते थे जिससे गुरुकुल में अध्ययन मैं किसी प्रकार की बाधा नहीं आती थी साथ ही मेधावी छात्र को का ज्ञान भी परिपुष्ट होता था। मेधावी छात्रों को भावी शिक्षण प्रशिक्षण मिल जाता था।
कथाकथन विधि विषय को रुचिकर बनाने के लिए तथा अधिक स्पष्ट करने के लिए उपनिषदों, हितोपदेश तथापंचतंत्र की कथाएं बीच-बीच में छात्रों को सुनाई जाती थी जिससे छात्रों का ज्ञान स्थाई हो जाता था साथ ही विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता। उपनिषदों, हितोपदेश पंचतंत्र आदि से उदाहरण प्रस्तुत करने पर छात्रों में इनके प्रति भी रुचि जागृत होती।
पाठशाला विधि के गुण
(अ )गुरुकुल और आश्रमों में रहने के कारण गुरु और शिष्य में मधुर संबंध स्थापित होते थे
(ब ))छात्रों में अनुशासन की भावना का विकास होता था
(स )स्मरण शक्ति पर अत्यधिक बल
पाठशाला विधि के दोष
(अ)शिक्षण अध्यापक केंद्रित होने के कारण शिक्षण नीरस होता था
(ब)यह विधि सामान्य, मंदबुद्धि छात्रों के लिए उपयोगी नहीं है
(स) छात्रों में सर्वांगीण विकास के लिए उपयुक्त नही
(द) रटने की प्रवृत्ति पर अधिक बल देने केकारण वर्तमान में सराहनीय नहीं रही।
(य)व्याकरण के प्रयोग की समझ विकसित होने के स्थान पर रटने पर अधिक बल
विशेष
संस्कृत शिक्षण की प्राचीन विधि में से हमने पाठशाला विधि की सभी विधियो के बारे मे जाना अब दूसरी विधि भंडारकर विधि/व्याकरण अनुवाद विधि का अध्ययन अगली पोस्ट में करेंगे
धन्यवाद
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